मंडी बामोरा (विश्व परिवार)। संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनिश्री 108 संधान सागर जी महाराज ने 24 घंटे का प्रतिमायोग करते हुए कहा कि मूढ़ता को त्याग करने वाला ही धर्म को पा सकता है, दो प्रकार की मुख्य रूप से मूढ़ता बताई- आध्यात्मिक मूढ़ता, एवं उपासनागत मूढ़ता, पर में ममत्व भाव रखना ये मेरा है, मैं इसका हूं, यह मिथ्या कल्पना आधात्मिक मूढ़ता है, आप किसी के हो नहीं सकते, कोई अन्य आपका नहीं हो सकता, ये शाश्वत सत्य है। पूज्य मुनिश्री ने उपासनागत मूढ़ता के आगमानुसार तीन भेद बताये, लोक मूढ़ता, देवमूढ़ता एवं गुरूमूढ़ता। पूज्य श्री ने कहा कि सागर-नदी आदि में स्नाना करना वृक्षादि को देव मान कर पूजा करना लोक मूढ़ता है, एक सत्य व्यंग्य पर लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हुए, सूरज के डूब जाने पर कभी खाते नहीें हैं एवं नदी को इतना पवित्र/पूज्य मानते है ंकि उसमें कभी नहाते नहीं है। मुनिश्री ने देवगुरू की मूढ़ता से भी दूर रहने की प्रेरणा दीद्ध जैन आगमानुसार जो वीतरागी-सर्वज्ञ- हितोपदेशी हो, 18 दोषों से रहित हैं वे सच्चे देव हैं, राग-द्ववेष से सहित देव कैसे हो सकते हैं? इस बात को अच्छी तरह ह़दयंगम करने वाला कभी भी कुदेव-कुगुरू-कुशास्त्र की शरण में नही जायेगा। पूज्य मुनिश्री ने छोटे-छोटे उदाहरण देकर अपनी बात बात को सभी के समक्ष इस तरह रखा कि उपस्थित श्रोताओं ने बहुत अच्छे से सुना। पूज्य मुनिश्री जी ने श्रीकृष्ण की कड़वी खीर की कहानी से बताया कि ऊपरी बदलाव नहीं, भीतरी बदलाव होना चाहिए, आज की हायकू था- अंधेरे में ही ङ्क्षककर्तव्यमूढ़ हो, कत्र्तव्यवाही अर्थात कत्र्तव्य करो मोह अंधेरे को ज्ञानरूपी दीपक से ही दूर कर सकते हैं।
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