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आरोग्य , बुद्धि, विनय,शास्त्रानुराग से किया गया स्वाध्याय का उद्यम पुण्यशाली फल होता हैं स्वाध्याय तप हैं – आचार्य श्री वर्धमान सागर जी

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बांसवाड़ा(विश्व परिवार) | पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री वर्धमान सागर जी संघ सहित खांदू कालोनी में विराजित हैं आज की धर्म सभा में आचार्य श्री ने धर्म देशना में बताया कि स्वाध्याय क्यों करना चाहिए, स्वाध्याय की क्या परिभाषा है, स्वाध्याय के क्या-क्या गुण है, स्वाध्याय कैसे करना चाहिए, स्वाध्याय के लिए कैसा वातावरण होना चाहिए ,कौन सा स्थान उपयुक्त है , हमारा जन्म क्यों हुआ जीवन का वास्तविक लक्ष्य क्या है आदि अनेक विषयों पर विस्तृत विवेचना आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज ने खांदू कॉलोनी बांसवाड़ा की धर्म सभा में प्रकट की।आचार्य श्री ने बताया कि स्व का अध्ययन , आत्मा का अध्ययन ही स्वाध्याय है ।जिस प्रकार कोई भी कार्य आप अंतरंग और बहिरंग कर्म से करते हैं वैसे ही स्वाध्याय भी अंतरंग और बहिरंग तप कर्म से किया जाता है ।स्वाध्याय करने के लिए आरोग्य ,बुद्धि ,विनय ,उद्यम, शास्त्र अनुराग होना जरूरी है यदि आप स्वस्थ हैं निरोगी है तो आपका स्वाध्याय में चित मन लगेगा विषयों की आकांक्षा कषाय नहीं होना चाहिए तभी आप स्वाध्याय से, उपदेश से आत्मा का स्वरूप समझ सकते हैं। रोगी व्यक्ति का मन विचलित होता है ,स्वाध्याय तप है इसके लिए तैयारी करना होती है हमारी बुद्धि अन्य लौकिक कार्यों में तेजी से चलती है किंतु स्वाध्याय में बुद्धि नहीं लगती हैं ,कहते हैं हमारा मन नहीं लगता ।आचार्य श्री ने भिंडर के प्रसिद्ध विद्वान जवाहरलाल जी शास्त्री का उदाहरण दिया कि उन्होंने षटखंडागम ,महाबंध समयसार आदि अनेक बड़े-बड़े ग्रंथ उनको कंठस्थ है ।यह सब बुद्धि के क्षयोपशम स्वाध्याय करने से आपको प्राप्त होता है। ब्रह्मचारी गज्जू भैय्या एवम समाज सेठ अमृतलाल अनुसार आचार्य श्री वर्धमानसागर जी ने बताया कि भगवान ने उपदेश में साततत्व बताएं हैं बुद्धि का सही उपयोग से शास्त्र और उपदेश समझ में आता है। स्वाध्याय विनयपूर्वक करना चाहिए खड़े-खड़े स्वाध्याय नहीं होता है ,बैठकर आसन की स्थिरता से शास्त्र को अपने से ऊपर रखकर विनय पूर्वक स्वाध्याय करना चाहिए ।शास्त्र अनुराग को स्पष्ट करते हुए बताया कि आपको शास्त्र के प्रति अनुराग होना चाहिए जिस शास्त्र का स्वाध्याय अपने प्रारंभ किया है वह ग्रंथ पूर्ण होने तक दूसरे ग्रंथ का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए तभी आप उसे ग्रंथ को भली-भांति समझ सकेंगे। आचार्य श्री ने बताया कि स्वाध्याय आचार्य साधु संग या विद्वान के सानिध्य में करना चाहिए क्योंकि स्वाध्याय से विशुद्धता प्राप्त होती है स्वाध्याय के लिए जिनालय मंदिर ज्यादा उपयुक्त है क्योंकि स्वाध्याय के लिए मन की स्थिरता शांत वातावरण से मिलती है वहां निराकूलता होती है निवास पर शोरगुल से आकुलता और मन विचलित होता हैं।स्वाध्याय से संसार विषय भोग के प्रति वैराग्य का निमित्त बनता है स्वाध्याय में महापुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ने को मिलता है अनेक कथानक है कि साधु के दर्शन साधु के उपदेश से अनेक भव्य प्राणियों को वैराग्य हो गया। राजेश पंचोलिया एवं समाज प्रतिनिधि अक्षय डांगरा अनुसार आचार्य श्री वर्धमान सागर जी ने बताया कि शरीर के प्रति आपको मैत्री भाव रखना चाहिए क्योंकि आपका शरीर धार्मिक कार्य करने में आपका सहयोगी है इसलिए शरीर से शत्रुता नहीं मित्रता होना चाहिए। मन की निग्रह एकाग्रता से स्वाध्याय होता है मन को स्थिर रखने के लिए नियंत्रण होना चाहिए तभी कार्य की सिद्ध होगी। इंद्रीय विषय के भोग दुख देते हैं आचार्य श्री ने बताया कि इस स्पर्शन इंद्रिय सुख आप इतने भोगी हो चुके हैं कि धर्म सभा मंदिर में भी पंखे लगा रखे हैं। पंखे की हवा आपको हवा कर देगी ।पंखों के उपयोग में भी विवेक होना चाहिए भगवान की भक्ति,पूजन दर्शन अभिषेक आप 1 घंटे के लिए करते हैं तो बगैर पंखे के रहने का प्रयास करें। इंद्रिय विषयों पर चार प्रकार की संज्ञा जीवन को अस्थिर करती है।आपकी अनेक शंकाओं ,जिज्ञासा का समाधान स्वाध्याय से मिलता है आप आचार्य साधु परमेष्ठी विद्वानों से भी अपनी जिज्ञासा का समाधान कर सकते हैं ।अनेक भव से संसार में भ्रमण करते हुए आप अभी तक थके नहीं है दीक्षा लेने वाला विषय कषाय से हटकर दीक्षा लेता है तभी उसकी थकान दूर होती है आत्मा का वास्तविक घर सात राजू ऊपर सिद्धालय में है स्वाध्याय हमें वास्तविक घर की राह दिखाता है ।स्वाध्याय से हमे ज्ञान प्राप्त होता है हमें यह चिंतन करना चाहिए कि हमारा जन्म क्यों हुआ ,हमारा क्या लक्ष्य है, और वास्तविक सुख कहां पर मिलेगा। स्वाध्याय ज्ञान को परिमार्जित करता है और ज्ञान को हृदय में उतरना चाहिए।

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