दिल्ली(विश्व परिवार) | दिल्ली में संसद के नए भवन के उद्घाटन के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ नए परंपराएं शुरू की थीं. इन्हीं में से एक थी सेंगोल की स्थापना. प्रधानमंत्री ने इसे तमिलनाडु के अधीनम मठ से स्वीकार कर लोकसभा स्पीकर के आसन के पास स्थापित किया था. अब इसको लेकर नई बहस छिड़ गई है. समाजवादी पार्टी ने सेंगोल को हटाकर उसके स्थान पर संविधान रखने की मांग की है. इस पर भाजपा सांसद महेश जेठमलानी का कहना है कि सेंगोल राष्ट्र का प्रतीक है. इसको स्थापित किया गया था और अब कोई नहीं हटा सकता. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सेंगोल वाकई में राष्ट्र का प्रतीक है? क्या इसे हटाया नहीं जा सकता है? आइए जानने की कोशिश करते हैं |
अब समाजवादी पार्टी के सांसद आरके चौधरी ने स्पीकर को एक चिट्ठी लिखकर संसद भवन से सेंगोल को हटाने की मांग की है. चौधरी ने कहा है कि भाजपा की सरकार ने संसद भवन में स्पीकर के पास सेंगोल स्थापित कर दिया. इसका हिंदी अर्थ है राजदंड यानी राजा का डंडा. इसीलिए संसद से सेंगोल को हटाना चाहिए. उन्होंने सवाल किया कि अब देश संविधान के हिसाब से चलेगा या फिर राजा के डंडे से चलेगा? इसलिए हमारी मांग है कि लोकतंत्र को बचाने के लिए संसद भवन से सेंगोल को हटाकर संविधान को लाना चाहिए |
पंडित नेहरू को मिला था
अब अगर हम बात सेंगोल को संसद में रखने की परंपरा की बात करें तो पहले का ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता है. संसद के उद्घाटन से पहले गृह मंत्री अमित शाह ने जरूर दावा किया था कि 14 अगस्त 1947 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तमिल पुजारियों के हाथों सेंगोल स्वीकार किया था. बाद में इसे एक म्यूजियम में रख दिया गया था. वहीं, कुछ इतिहासकार दावा करते हैं कि देश की आजादी के वक्त सेंगोल को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर लॉर्ड माउंटबेटन ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था. इसका आइडिया भारतीय गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी ने दिया था. हालांकि, बहुत से इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं |
समाजवादी पार्टी के सांसद आरके चौधरी ने स्पीकर को एक चिट्ठी लिखकर संसद भवन से सेंगोल को हटाने की मांग की है |
इतिहासकार का इनकार और इकरार
बीबीसी की एक रिपोर्ट में सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू पुस्तक के संपादक प्रोफेसर माधवन पलट के हवाले से कहा गया है कि इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता है कि लॉर्ड माउंटबेटेन ने प्रधानमंत्री नेहरू को इसे दिया था |
वह कहते हैं कि माउंटबेटेन ने नेहरू को सत्ता हस्तानांतरण के प्रतीक के रूप में अगर इसे सौंपा होता तो इसका भरपूर प्रचार किया जाता. उस वक्त की तस्वीरों में भी यह होता. प्रोफेसर माधवन एक तर्क यह भी देते हैं कि औपनिवेशिक देश की ओर से नेहरू सत्ता के ऐसे प्रतीक को शायद ही स्वीकार करते |
वहीं, इसी रिपोर्ट में तमिनलनाडु के थंजावुर में स्थित तमिल यूनिवर्सिटी के आर्कियोलॉजी के प्रोफेसर एस राजावेलु के हवाले से कहा गया है कि तमिल में राजदंड या सेंगोल का मतलब इंसाफ है. सेंगोल तमिल राजाओं के पास होते थे. आजादी के बाद प्रधानमंत्री बने पंडित जवाहरलाल नेहरू को इसे उपहार में दिया गया था. भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी ने तब पंडित नेहरू को सुझाव दिया था कि ब्रिटिश हुकूमत की ओर से भारत को सत्ता सौंपने को दर्शाने के लिए यह एक प्रतीक है |
सरकारी वेबसाइट पर राष्ट्र के प्रतीक में शामिल नहीं
यानी कहा जा सकता है कि सेंगोल राजा, सत्ता और अच्छे शासन का प्रतीक तो है पर राष्ट्र का प्रतीक नहीं है. केंद्र सरकार की वेबसाइट https://knowindia.india.gov.in/ पर राष्ट्र के जिन प्रतीक चिह्नों के बारे में बताया गया है, यह उसमें भी शामिल नहीं है. इस वेबसाइट पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा, राष्ट्रगान यानी जन गण मन राष्ट्रीय गीत वंदेमातरम, राजकीय प्रतीक सारनाथ में स्थित सम्राट अशोक के स्तंभ पर उकेरे गए चार सिंह, राष्ट्रीय पक्षी मोर और राष्ट्रीय पशु बाघ को बताया गया गया |
सेंगोल को 28 मई 2023 को नए संसद में स्थापित किया गया था |
इसलिए बनते हैं राष्ट्र के प्रतीक
दरअसल, भारत के राष्ट्रीय प्रतीक यहां की पहचान और विरासत का मूल हिस्सा हैं. वैसे भी ये प्रतीक किसी देश की संस्कृति को दर्शाते हैं. राष्ट्र की पहचान कराने वाले इन्हीं प्रतीकों को राष्ट्र के प्रतीक के रूप में मान्यता दी जाती है. ऐसे में सेंगोल को संसद में स्थापित कर प्रधानमंत्री ने नई परंपरा की शुरुआत भले ही की है, अब तक यह राष्ट्र का प्रतीक नहीं बना है. इस बात के आइने में यह बात कही जा सकती है कि भाजपा सांसद के इस दावे में कोई दम नहीं है कि इसे हटाया नहीं जा सकता है |
बहुत पुराना है सेंगोल का इतिहास
सेंगोल वास्तव में संस्कृत के शब्द संकु से लिया गया है. इसका अर्थ है शंख, जिसे संप्रभुता का प्रतीक माना जाता था. सेंगोल यानी राजदंड भारतीय शासकों की शक्ति और हक का प्रतीक था. यह सोने या फिर चांदी से बनता था और कीमती पत्थरों से सजाया जाता था. इसे सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक भी माना जाता था. रामायण और महाभारत की कथा में भी राजतिलक, राजमुकुट पहनाने को सत्ता सौंपने का प्रतीक मिलता है. इसके साथ राजा को धातु की एक छड़ी भी दी जाती थी, जिसको राजदंड कहा जाता था |
हालांकि, भारतीय इतिहास की बात करें तो राजदंड के पहला इस्तेमाल मौर्य साम्राज्य में (322-185 ईसा पूर्व) मिलता है. फिर गुप्त साम्राज्य (320-550 ईस्वी) से लेकर चोल साम्राज्य (907-1310 ईस्वी) और विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) तक में इसका इस्तेमाल हुआ. मध्य काल में सेंगोल का इस्तेमाल मुगल शासकों की शक्ति दैवीय अधिकार के प्रतीक के रूप में होता था|