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प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती गुरुणाम गुरु आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज का 152 वा वर्ष वर्धन “दिवस आषाढ़ कृष्णा छठ 6 दिनांक अनुसार 27 जून 2024 को है

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सातगोंडा(विश्व परिवार) | आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज का आचार्य पद वर्ष 1924 में हुआ वर्ष 2024 में आचार्य पदारोहण रोहण शताब्दी महोत्सव आचार्य श्री वर्धमान सागर जी के मार्गदर्शन में अखिल भारतीय स्तर पर अक्टूबर 24 से अक्टूबर 25 तक मनाया जावेगा।आपसे मुनि दीक्षा गुरु श्री देवेंद्र कीर्ति स्वामी ने पुनः दीक्षा ली इस कारण आपको गुरुणाम गुरु की उपाधि दी गई
श्री सातगोंडा जी का जन्म सन 1872 में हुआ आपने सन 1915 में क्षुल्लक दीक्षा ,सन 1919 में ऐलक दीक्षा ,सन 1920 में मुनि दीक्षा ली ।और सन 1924 में आपको आचार्य पद पर विभूषित किया गया।

प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की अक्षुण्ण मूल बाल ब्रह्मचारी पट्ट परंपरा को जानने का प्रयास करें। प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज द्वारा जो आहार लिया जाता था वह आहार कुएं के पानी का कोयले की सिंगडी पर बनता है जो आज भी वही परंपरा हैं आहार देने वालो को आजीवन शूद्र जल त्याग त्याग का नियम होता है, वह सामूहिक रसोई में खाना नहीं खाते है ,जो अंग्रेजी लिक्विड दवाई का प्रयोग भी नहीं करते है ।गोत्र और पिंड की शुद्धि अंतरजातीय विवाह विधवा विवाह वालो को आहार देने की तब से आज तक अनुमति नहीं हैं। आहार के वस्त्र पॉलीथिन में मान्य नहीं हैं आहार के वस्त्र भी सूत नारियल की रस्सी या लोहे के तार पर सुखाना होते हैं । संघ में साधुओं का पड़गाहन कर परिक्रमा कर नवधाभक्ति, चरण प्रक्षालन, पूजन अध्र्य चढ़ाया जाता हैं। संघ में जब आचार्य श्री दक्षिण से उत्तर भारत सम्मेद शिखर जी की यात्रा पर गए तब के पहले से संघ के साथ चलित मंदिर चेत्यालय भी साथ में रखा जिस पर पंचामृत और महिला अभिषेक होता रहा, जो आज भी आचार्य श्री शांति सागर जी की परंपरा में जितने भी आचार्य साधु हुए हैं उन सभी के संघ में श्री जी के चेत्यालय आज भी रहते हैं जिनमें पंचामृत अभिषेक महिला अभिषेक हरे फल नारियल फल फूल नैवेद्य चढ़ाए जाते हैं।शासन देवी देवताओं का अनादर नही होता है |

प्रथमाचार्य श्री शांति सागर जी वर्ष 1924 से वर्ष 1955 तक आचार्य पद पर रहे सल्लेखना के कारण अपने प्रथम मुनि शिष्य श्री वीरसागर को लिखित पत्र से आचार्य पद दिया ।आचार्य श्री वीर सागर जी परंपरा के प्रथम पट्टाधीश सन 1955 से सन 1957 तक रहे।आपकी समाधि के बाद आपकी भावना इक्छा अनुसार शिष्य श्री शिव सागर जी परंपरा के सन 1957 से 16 फरवरी सन 1969 तक दिव्तीय पट्टाधीश होकर आचार्य पद पर रहे ।आपकी भावना अनुसार परंपरा के तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री धर्म सागर जी 24 फरवरी 1969 को बनाए गए । यहां यह महत्व पूर्ण है कि आचार्य श्री शिव सागर जी के विद्यमान संयम साधना में रहते मुनि श्री ज्ञान सागर जी को नसीराबाद समाज ने दिनांक 7 फरवरी 1969 को आचार्य बनाया। अर्थात आचार्य श्री शिव सागर जी की समाधि 16फरवरी 1969 के पूर्व श्री ज्ञान सागर जी आचार्य बने।आचार्य श्री धर्म सागर जी 24 फरवरी 1969 से 22 अप्रैल 1987 समाधि तक परंपरा के तृतीय पट्टाधीशआचार्य रहे। आपकी समाधि के बाद चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य श्री अजित सागर जी संघ द्वारा बनाए गए। परंपरा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य श्री अजित सागर जी 7 जून 1987 से समाधि होने सन 1990 तक आचार्य रहे। आपकी समाधि के बाद आचार्य श्री अजित सागर जी के लिखित आदेश पत्र अनुसार परंपरा के पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री वर्धमान सागर जी 24 जून 1990 आषाढ़ सुदी दूज से वर्तमान तक संयम साधना से धर्म प्रभावना कर रहे हैं ।श्री सातगोंडा जी का जन्म सन 1872 में हुआ। 9 वर्ष की उम्र में 6 वर्ष की कन्या से विवाह हुआ जो 6 माह जीवित रही। आपने 18 वर्ष की उम्र में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लिया। 32 वर्ष की उम्र से धी और तेल का आजीवन त्याग और एक समय भोजन का नियम लिया।

आपने सन 1915 में क्षुल्लक दीक्षा ,सन 1919 में ऐलक दीक्षा ,सन 1920 में मुनि दीक्षा ली और सन 1924 में आपको आचार्य पद पर विभूषित किया गया। आपने 88 भव्य प्राणियों को संयम दीक्षा दी । 26 मुनि 5 आर्यिका ,16 ऐलक ,28 क्षुल्लक और 13 क्षुल्लिका दीक्षा दी । संयम काल में 9938 से अधिक उपवास किए। जैन मंदिर में विजातीय प्रवेश के विरोध में 1105 दिन अन्न आहार का त्याग किया । जिनालय ,जैन धर्म की संस्कृति जिनवाणी के संरक्षण के लिए आपकी प्रेरणा मील का पत्थर होकर स्वर्णिम इतिहास हैं ।आपने 18 करोड़ से अधिक मंत्र जाप किए। जीवन में सर्प,सिंह मकोड़े , चीटी मानव जन्य उपसर्ग समता भाव से सहन किए। अनेक बार आहार की विधि कई दिनों तक नही मिलने से आपके उपवास हुए। मिट्टी के कलश से पड़गाहन की विधि 8 दिन बाद मिली।अनेक वर्षों तक आहार में केवल दूध चावल पानी ही दिया। एक बार 8 दिनों तक आहार में पानी नही दिया 9 वे दिन आहार में केवल पानी ही लिया । एक बार अंजुली में अत्यधिक गर्म दूध देने से आप मूर्छित हो गए । आप उपवास इतने करते थे कि एक नगर में चातुर्मास में 6 माह में से 4 माह उपवास में निकल गए। देहली में शासकीय महत्वपूर्ण इमारतों के समक्ष इस कारण फोटो निकलवाए ताकि दिगंबर साधुओं का विहार में बाधा नहीं हो। निजाम राज्य में भी दिगंबर साधुओं के विहार पर रोक थी देवी सपने से निजाम अधिकारी ने आदेश वापस लिया ।

आचार्य श्री के बचपन,खेती के कपड़ा दुकान के स्वाध्याय संबंधी ,दूरदर्शिता बुद्धि कोशल, आहार चर्या,उपवास,उपसर्ग बाल विवाह पर रोक, अन्य समाज को मांसाहार के त्याग आदि बहुत प्रसंग दिल को द्रवित करते हैं

नेत्रों में मोतियाबिंद होने पर स्वस्थ होने के बाद भी सल्लेखना लेकर 36 दिनों में मात्र 12 बार जल लिया । एक नगर में चातुर्मास में पूरी अवधि सभी साधुओं ने रस का त्याग किया ।आपकी समाधि सन1955 में हुई।

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