Home रायपुर भगवान महावीर के उपदेश सदैव प्रासंगिक

भगवान महावीर के उपदेश सदैव प्रासंगिक

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रायपुर(विश्व परिवार)– भगवान महावीर के 2623 वें जन्मोत्सव के परिप्रेक्ष्य में आज एक प्रेस नोट जारी कर श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कैलाश रारा ने बताया कि तीर्थंकर भगवान केवल ज्ञानी होते हैं। उनके ज्ञान में तीनों लोक के तीनों काल के समस्त पदार्थो की समस्त पर्याये युगपत झलकती हैं। इसलिए उनके उपदेश सदैव अप टू डेट होते हैं कभी आउट आफ डेट नहीं होते। वे सार्वकालिक होते हैं, सार्वभौमिक होते हैं। अहिंसा तीन काल में हमेशा अहिंसा ही रहेगी उसका कभी स्वरूप नहीं बदलने वाला। देवलोक, मनुष्यलोक, नारकी सबके लिए भगवान के उपदेश एक समान होते हैं। उसमें किसी क्षेत्र विशेष का भेद नहीं होता क्योंकि वे सार्वभौमिक होते हैं।
भगवान महावीर ने अपने जीवन मे यह कभी नहीं कहा की हम सब एक हैं बल्कि सदैव यही कहा कि हम सब एक जैसे है। उनके इस समता मूलक उपदेश ने प्राणी मात्र के हृदय में सहअनुभूति का भाव जागृत कर दिया- परस्परोपग्रहो जीवानाम्।
भगवान ने कहा था संसार में जितने भी प्राणी है वे सब सुख से जीना चाहते हैं, दुख किसी को प्रिय नहीं है इसलिए किसी भी प्राणी को कष्ट मत पहुंचाओ और दूसरों के साथ भी ठीक ऐसा ही व्यवहार करो जैसा तुम स्वयं दूसरों से अपने प्रति अपेक्षा करते हो।
भगवान ने कहा आप अपने लिए उतनी ही वस्तुओं का संग्रह करें जितनी की आपकी आवश्यकता हो आपके द्वारा आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह दूसरों के अधिकार को छीनता है और इससे समाज के बीच वर्ग संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है।
भगवान ने कहा कि जो मैं कहता हूं उसे आप अपने तर्क की कसौटी पर कसकर अनुभूति से स्वीकार करना अन्यथा यह सत्य तुम्हारा नहीं बन पाएगा। मेरे अद्भुत व्यक्तित्व के प्रभाव में आकर जो मैंने कहा है उसे ऊपर से स्वीकार भी कर लिया कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि वह तो एक नए अंधविश्वास एवं पोपडम को ही जन्म देगा।
भगवान ने कहा था कि इस बात का पूर्वाग्रह छोड़ो कि जो मैं कहता हूं वह ही सत्य है, सत्य वह भी हो सकता है जो दूसरे कहते हैं। वस्तु का स्वरूप अनेकांतमई होता है। आप जब किसी विषय की व्याख्या कर रहे होते हैं तब एक समय में एक को ही मुख्य करके कह सकते हो, उस समय शेष अपेक्षाएं गौण रहती है, समाप्त नहीं हो जाती। इसलिए कथन करते वक्त वाणी में सदैव स्यात् अथवा कथंचित का प्रयोग किया करें। भगवान महावीर का अनेकांत का सिद्धांत जैन दर्शन को सर्व धर्मो में गौरवपूर्ण स्थान प्रदत कराता है।
भगवान ने सद गृहस्थों के लिए पंचाणुव्रत का उपदेश दिया है। वस्तुतः यह सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अचौर्य एवं अपरिग्रह कहने की अपेक्षा अलग-अलग हो सकते हैं किंतु वस्तुतः तो एक ही है। मेरे विचार से जहां अहिंसा होती है वहां शेष अणुव्रतो का अनुपालन युगपत होता है। सार रूप बात यह है कि जैन वह है जिसके विचारों में अनेकांत, वाणी में स्याद्वाद एवं आचरण अहिंसा हो।
घटनाओं की अपेक्षा यद्यपि भगवान महावीर का जीवन कोई खास नहीं था। उन्होंने अपने आरंभ के 30 वर्ष अपने राजप्रसाद में व्यतीत किये, पश्चात 12 वर्ष तक जंगल में जाकर कठोर तप साधना की तथा जीवन के शेष 30 वर्ष उन्होंने अपने ज्ञान से प्राप्त रश्मि के दिव्य आलोक में मानव मनीषा के सुप्त हृदय को जागने में लगा दिये।
किसी भी एक क्षत्रिय कुमार के लिए खेल ही खेल में किसी मदोन्मत हाथी को वश में कर लेना अथवा किसी भयंकर विषधर को रास्ता नापने पर विवश कर देना कोई महत्व की बात नहीं होती किंतु एक क्षत्रिय कुमार होते हुए भी मानव मनीषा के दुखों से द्रवित होकर निर्जन वन की शरण में चले जाना अद्भुत बात होती है और उनकी इसी बात ने उनको राजकुमार वर्धमान से जन-जन के पूज्य भगवान महावीर बना दिया।
उल्लेखनीय कि भगवान महावीर का निर्वाण संवत देश और दुनिया के समस्त संवतो में सबसे प्राचीन है – 2550 वर्ष।
ईशा से 599 वर्ष पूर्व वैशाली के कुंडग्राम में महाराज सिद्धार्थ की राजमहिषी त्रिशला के गर्भ से जन्मे महावीर प्रभु ने संपूर्ण भारतवर्ष सहित विदेशो में ऑक्सीनिया, यूनान, मिश्र, बल्ख, कंधार, लालसागर के निकटवर्ती देश तूरान आदि 50 से अधिक देशो में पद विहार कर धर्म का उपदेश दिया।

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