(विश्व परिवार)- श्रद्धेय संत पूज्य विद्यासागर जी महाराज महासमाधि में चले गए।लेकिन वास्तव में यह उनकी भौतिक देह का विलीन हो कर अक्षर देह में लौटना है।उन्होंने इसीलिए अपने कालजयी महाकाव्य का नाम” मूकमाटी”रखा होगा क्योंकि वे मिट्टी के नहीं ,मिट्टी के मौन के प्रशस्तिकार थे।वास्तव में उनकी देशना मिट्टी के मौन की वह वाणी थी जो जगत को लोकमांगल का संदेश देने के लिए उनके कंठ में विराजती थी।मिट्टी का मौन अपनी देशना के लिए पूज्य विद्यासागर जी जैसे मानवता के शीर्ष प्रतिनिधि को ही चुनता आया है चाहे वे हज़ारों वर्ष पूर्व अवतरित हुए महावीर हों या आज के युग में अवतीर्ण पूज्य विद्यासागर महाराज श्रीजी।
वे जैन अवधारणा की उस महान साधना के पर्याय थे जो देह की मिट्टी को निरंतर परीक्षित करती है और लोककल्याण को वाणी देती है।
मुझे उनका भरपूर आशीर्वाद मिला।उन्होंने जब बुरहानपुर की ओर विहार किया तो वहां के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता ठाकुर शिवकुमार सिंह उनके अनुयायी ही हो गए।वे भी उनके साथ पैदल विहार करते और शिव भैय्या के साथ मैं भी सिद्धवरकूट तक गया।तब एक अलौकिक अनुभव हुआ पूज्य संत के अन्यतम अध्ययन,भाषा ज्ञान और सरल भाषा में जटिल अवधारणाओं को समझने का।वे जैन सिद्धांतों को इस प्रकार और इतने व्यवहारिक रूप से समझाते कि वे सिद्धांत समूची मानवता की निधि प्रतीत होते किसी सम्प्रदाय के नहीं।फिर उज्जैन में जब श्रद्धेय राममूर्ति त्रिपाठी मूक माटी पर कार्य कर रहे थे तब मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य मिला।मेरे शहर हरदा के निकट नेमावर में उनके दो चातुर्मास हुए तब तो उनके आशीर्वाद की वर्षा हुई।
मुझे एक और दुर्लभ अवसर उनके महान व्यक्तित्व और कृतित्व को समझनेवका तब मिला जब उनके महान शिष्य पूज्य मुनि क्षमासागर जी का मंगल विहार उज्जैन में हुआ।वे विलक्षण काव्य सर्जक थे। मैं तो उन्हें मूल रूप से साहित्यकार ही मानता हूं।उन्होंने मुझे पूज्य विद्यासागर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समग्रता में समझाया।
मैंने जब जब भी जैन दर्शन और उसके कला पक्ष पर कृतियां लिखीं उन्हें पूज्य विद्यासागर जी को भेंट करता रहा और उनकी आशीष मिलती रही।
दो वर्ष पूर्व प्रख्यात जैन दर्शन के मनीषी आदरणीय देवेंद्रकुमार जी जैन की कृति की भूमिका में मैंने उन पर लिखा जिसका आशीर्वाद मुझे मिला।
भले मैं उनसे प्रत्यक्ष भेंट प्रत्येक बार नहीं कर सका लेकिन उनकी प्रखर स्मृति की परिधि में मैं रह पाया।यह मेरे जीवन का सौभाग्य है।मेरी कृति “जैन चित्रांकन परंपरा,”की उन्होंने भरपूर अनुमोदना की।उन्हें मैंने यह सूचना भी प्रेषित की कि मैं अब भक्तामर की चित्रांकन परंपरा पर कार्य कर रहा हूं जिसे भी उनका अनुमोदन मिला। उनकी अनुपम विशिष्टता थी सदैव प्रेरित करना।
वे अपने समय से जुड़े हुए थे।उनके पास आज की सभी समस्याओं के रचनात्मक समाधान थे और ये समाधान व्यवहार के धरातल पर विद्यमान थे।
उनके दिव्य मुखमंडल पर अनुपम मुस्कान तैरती रहती थी जो उनसे अभिन्न थी और उनकी महासमाधि तक उनसे विलग नहीं हुई।
उन्होंने सब कुछ त्याग दिया लेकिन मुस्कान नहीं त्यागी इसलिए कि यह विश्व मुस्कराता रहे।
ऐसी अनुपम विभूति किसी एक विशेष संप्रदाय की कैसे होगी? उन्हें किसी एक संप्रदाय तक सीमित करना मानुष भाव का अनादर करना है।
वे विद्या के अपरिमित सागर थे जिसकी हर हिलोर हमें ज्ञान के आलोक से,प्रकाश से स्नान कराती है। इसीलिए भले वे भौतिक देह के रूप में विलीन हो गए हों लेकिन अक्षर देह के रूप में हमारे बीच सदैव के लिए लौट आए हैं।
उनकी स्मृति को प्रणाम और उनकी इस दिव्य,अनश्वर और शाश्वत आखर देह का अभिनंदन।
नर्मदा प्रसाद उपाध्याय