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ज्ञान अमृत के समान है : चर्या शिरोमणी दिगम्बर जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी गुरुदेव

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नांदणी(विश्व परिवार)। चर्या शिरोमणी दिगम्बर जैन आचार्य श्री विशुद्धसागर जी गुरुदेव ने नांदणी मे धर्मसमा को सम्बोधित करते हुए कहा कि अंतिम तिर्थेश वर्धमान स्वामी के शासन में हम सभी विराजते हैं | तीर्थंकर भगवान की पीयूष देशना जिनेंद्रवाणी जगतकल्याणी है | यह सर्वज्ञशासन, नमोस्तुशासन जयवन्त हो | जयवन्त हो वितरागी श्रमणसंस्कृती |
जैन दर्शन में ज्ञान संज्ञा उसी की है जिससे तत्वों का बोध हो, चित्त का निरोध हो, जिससे आत्मा विशुद्ध हो। ज्ञान का उद्देश्य मात्र अक्षर-ज्ञान नहीं है, अपितु ज्ञान आत्म-कल्याण का हेतु बने और हो सके तो पर का पथ-प्रदर्शक बने। जिस ज्ञान से दुःखों से मुक्ति हो, जिससे आत्मा के स्वभावभूत शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार हो वही ज्ञान सम्यक् – ज्ञान है।
सम्यकदर्शन के बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान के बिना चारित्रगुण नही और चारित्र के बिना निर्वाण नहीं। ज्ञान बिना सब शून्य है। क्रियाशून्य ज्ञान व्यर्थ है, अज्ञानी की क्रिया व्यर्थ है। वहीं ज्ञान कल्याणकारी है जिससे चरित्र की शुद्धि, आचरण की शुद्धि, आत्म जागृति हो।
वात्सल्य, करुणा, दया, क्षमा, धैर्यादि गुणों की प्राप्ति हो। वहीं ज्ञान – ज्ञान है शेश अज्ञान है। धीर, वीर, गंभीर, आचारवान, अनुशासनशील, विनयी, उत्साही, शमावान, सत्य प्रिय ही ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है।
क्रोधी, चुगलखोर, संकलेश करने वाला, इन्द्रिय लोलुपी, चारित्र हीन, विचार-विहीन, अनुशासन शून्य मायावी मनुष्य सत्य ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता है।
“ज्ञान अमृत के समान है, अज्ञान विष है। ज्ञान प्रकाश है, अज्ञान अंधकार है। ज्ञान सुख का कारण है, अज्ञान ही दुःख है। ज्ञान मुक्ति पथ का प्रेरक है, अज्ञान कर्म- बंध में सहायक है।
हे ज्ञानधन चेतन्य भगवानात्मा । ज्ञान की ओर दृष्टिपात करो। आत्मकल्याण में परोपकारी ज्ञान को प्राप्त करो। यदि समीचीन ज्ञान को प्राप्त करना है तो ज्ञान के सागर दिगम्बर आचार्य भगवन्त, धरती के देवता मुनिराज, ज्ञान प्रदाता उपाध्याय- पाठक परमेष्टी की श्रद्धापूर्वक शीघ्रातिशीघ्र शरण प्राप्त कर ।
हे जीवात्मा! ज्ञान के समान उपकारी संसार में अन्य कोई समीचीन कारण नहीं है। ज्ञान से शून्य कोटि-कोटि वर्षों तक किया गया तप भी कल्याणकारी नहीं है।
ज्ञान पूर्वक शन मात्र की गई साधना भी सिद्धत्व की ओर प्रमाण है। शास्वत सुख की चाह है, तो हे भव्य आत्मा! सम्यक् ज्ञान की निधि प्राप्त कर। ज्ञान वह रत्न है जो श्रद्धा सम्यक्त्व और चारित्र को चमक प्रदान करता है। सम्यक्-ज्ञान ही आनन्द है।

 

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