कोल्हापुर(विश्व परिवार)। माना कि पैसे कमाने के हजारों मार्ग है और साधु सन्तों के पास तीन मार्ग पैसा बटोरने के – मन्दिर, मूर्ति और पूजा विधान, शान्तिधारा, शेष उन्मार्ग है। पैसा कमाने का उद्देश्य गलत नहीं है लेकिन ज्यादातर साधु सन्त अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं, अपनी विस्तार वादी नियत और नीति के कारण। जैसे अमृत निकालने के लिये समुद्र मन्थन किया,14 रत्न निकले। लोग अमृत को भूल गये, केवल लक्ष्मी पर टिक गये।
हम साधु सन्त भी अपने लक्ष्य को भूल कर लक्ष्मी पर अटक गये और यह भटकाव अच्छे उद्देश्य को भी खराब बना देता है। यदि पुण्य के खजाने को किफायत से खर्च ना किया जाये तो बड़े से बड़ा खजाना भी खाली हो जाता है। कहने का मतलब है आवश्यक व्यय में कमी ना लाये, ना कृपण बने लेकिन पुण्य के अपव्यय से बचें। मितव्ययिता के मन्त्र को अपनायें, यानि सदुपयोग करें।
भारतीय संस्कृति में मितव्ययिता को सम्मान मिला है। जैन दर्शन या जैन संस्कृति की अवधारणा है कि कम से कम वस्तुओं में जीना सीखें, वस्तुएं उतनी ही लेनी चाहिए जितनी आवश्यक हो। यही कल्याणकारी अर्थ शास्त्र की परिभाषा और जीवन जीने का तरीका है। अन्यथा इस जीवन में जर, जोरू और जमीन से, कभी तृप्ति मिलने वाली नहीं है। इसलिए आडम्बर मुक्त होकर सरल साधु का जीवन जीयें। सादगी, संयम और परोपकार को आत्मसात करें। मितव्ययिता एक संस्कार है जो सबके भीतर होना चाहिए। माता-पिता, धर्म गुरूओं को चाहिए कि वो भी मितव्ययी बने और नई युवा पीढ़ी में मितव्ययी का संस्कार विकसित करें,, जिससे हम भौतिक संसाधनों की चकाचौंध से बच सकें…!!!।