Home धर्म अभिनव कुन्दकुन्द हैं आचार्यश्री विशुद्धसागर महाराज

अभिनव कुन्दकुन्द हैं आचार्यश्री विशुद्धसागर महाराज

44
0

भिण्ड (विश्व परिवार)। दिगम्बर जैन श्रमण परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान अग्रगण्य है । वे भगवान् महावीर स्वामी की विशुद्ध आध्यात्मिक भावधारा के समर्थ संवाहक थे । आचार्य कुन्दकुन्द भगवन् के द्वारा निबद्ध समयसार, प्रवचनसार , पंचास्तिकाय एवं अष्टपाहुड आदि ग्रन्थों में जिस तत्त्वज्ञान का दिग्दर्शन होता है उसके अध्ययन से स्पष्टरूप से ध्वनित होता है कि वह उनके अगाध वैदुष्य के साथ-साथ तपश्चर्या और ध्यान की उत्कृष्ट अनुभूतियों से निःसृत है ।
आचार्य कुन्दकुन्द भगवन् के लगभग दो हजार वर्षों के उपरान्त इक्कीसवीं शताब्दी में आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज दिगम्बर जैन श्रमण परम्परा में एक ऐसे महान् उन्नायक आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं जिनकी मूलाचारिणी चर्या और समयसारमय चिन्तन और प्रवचनसारिणी वाणी से आचार्य कुन्दकुन्द की छवि साकार हो गयी है । इसलिए आचार्यश्री विशुद्धसागर जी महाराज को इक्कीसवीं शताब्दी का अभिनव कुन्दकुन्द कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है ।
आचार्यश्री विशुद्धसागर जी महाराज पूर्वजन्म के संस्कारों से जन्मना ही संसार के विषयभोगों से विरक्तमना थे । आपका जन्म मध्यप्रदेश के भिण्ड जिले के रूर ग्राम में 18 दिसम्बर सन् 1971 को हुआ था । पिता श्री रामनारायण जी और माता श्रीमती रत्तीबाई जी से आपको बाल्यकाल से ही परोपकार और संयमित जीवन के संस्कार प्राप्त हुए थे । इन्हीं संस्कारों के बल पर आपने बालब्रह्मचारी के रूप में मोक्षमार्ग पर कदम बढाते हुए क्षुल्लक और ऐलक दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् 21नवम्बर सन् 1991 को अपने गुरु आचार्य श्री विराग सागरजी महाराज से मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में स्थित श्रेयांसगिरि तीर्थक्षेत्र पर निर्ग्रन्थ श्रमण दीक्षा अंगीकार की थी । निर्ग्रन्थ श्रमण दीक्षा अंगीकार करने के उपरान्त आप निरन्तर ज्ञान,ध्यान और तप में लीन रहकर समत्व की साधना में लीन रहने लगे। एक मौन साधक के रूप में आत्मा की एकत्व विभक्त भावना की गहन अनभूतियों का अनुभव करते हुए सतत मूल आगम ग्रन्थों के स्वाध्याय में रत रहने से आपको आगम ग्रन्थों की हजारों गाथाएं और श्लोक कण्ठस्थ हो गये । आपने ग्रन्थों के श्लोकों एवं गाथाओं को और उनके शब्दार्थ को न केवल कण्ठस्थ किया अपितु उनमें निहित भावों को अपनी गहन अनुभूतियों का विषय भी बनाया । प्रारम्भ से ही अध्यात्म और न्याय ग्रन्थों के अध्ययन मेंं आपकी विशेष अभिरुचि रही है । इसका कारण यह है जैनधर्म के न्याय शास्त्रों के अध्ययन के बिना अध्यात्म शास्त्रों का मर्म हृदयंगम नहीं हो सकता है । जैन न्यायशास्त्रों के अध्ययन से ही अनेकान्त दृष्टि का विकास होता है । अनेकान्त दृष्टि से अध्ययन करने पर ही अध्यात्मशास्त्रोंं का रहस्योद्घाटन संंभव है । विरक्तमना अन्तरोन्मुखी श्रमण श्री विशुद्ध सागरजी महाराज के ज्ञान,ध्यान और तप की श्रेष्ठता देखकर उनके गुरु आचार्यश्री विरागसागरजी महाराज ने उन्हें 31 मार्च सन् 2007 में भगवान् महावीर स्वामी के जन्मकल्याणक के दिन महाराष्ट्र के औरंगाबाद में आचार्य पद प्रदान करके श्री वर्धमान स्वामी के निर्ग्रन्थ जिनशासन को वृद्धिंगत करने की आज्ञा प्रदान की थी । आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज ने गणाचार्यश्री विरागसागरजी महाराज की आज्ञा को शिरोधार्य करके इस कलिकाल में चौबीस तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित नमोस्तु शासनरूप जैनधर्म की अकल्पनीय प्रभावना की है । आपकी विशुद्ध चर्या, सौम्यमुद्रा, निर्मोही सम्मोहक दृष्टि, वात्सल्यपूर्ण मन्द मुस्कान एवं पीयूष देशना से आबालवृद्ध सभी प्रभावित हुए हैं । उच्च शिक्षित साधन सम्पन्न युवा पीढी जिस शान्ति और आनन्द की खोज में भटक रही थी उसे आपने धर्म के आडम्बर रहित वास्तविक स्वरूप का बोध प्रदान किया । इससे युवा पीढी की तार्किक बुद्धि सम्यक् श्रद्धा में परिवर्तित हो गयी । ऐसे श्रद्धालु युवाओं में से अनेक युवा तो आपकी चर्या और व्यक्तित्व से इतनी गहराई से प्रभावित हुए कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करके आपसे निर्ग्रन्थ दिगम्बर श्रमण दीक्षा अंगीकार करके सदा के लिए मुक्तिपथ को ही स्वीकार कर लिया है । आपके द्वारा दीक्षित शताधिक शिष्य आपका ही अनुसरण करते हुए अपने ज्ञान,ध्यान और तप से जिनधर्म की महती प्रभावना कर रहे हैं ।
आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज के प्रवचनों का यह वैशिष्ट्य है कि वे अपनी अनूठी न्याय शैली में केवल विशुद्ध आध्यात्मिक तत्त्वोपदेश प्रदान करते हैं । उनका तत्त्वोपदेश आगम ग्रन्थों पर ही केन्द्रित रहता है । वे अपनी दृष्टान्तपूर्ण शैली में आगम ग्रन्थों के बड़े-बड़े गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन इतनी सरलता और सहजता से कर देते हैं कि एक साधारण श्रोता भी उसे हृदयंगम कर लेता है । यही कारण है कि आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज ने आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द के समयसार आदि आगमग्रन्थों पर जो देशना प्रदान की है वह ग्रन्थों के रूप में प्रकाशित होकर घर-घर में और देश विदेश में स्थित प्रत्येक जिनालय में समादृत है । इन प्रवचनात्मक देशना ग्रन्थों का सामूहिक स्वाध्याय और शास्त्र वचनिका उसी प्रकार की जा रही है जिस प्रकार कुन्दकुन्द आदि प्रतिष्ठित आचार्यों के मूल ग्रन्थों का श्रध्दापूर्वक स्वाध्याय किया जाता है । आचार्यश्री विशुद्ध सागरजी महाराज के द्वारा प्रवचनात्मक देशना ग्रन्थों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में वस्तुत्व महाकाव्य जैसे कालजयी मौलिक ग्रन्थों का भी प्रणयन हुआ है । हिन्दी भाषा में रचित विशाल वस्तुत्व महाकाव्य में आचार्यश्री के गहन चिंतन और विलक्षण काव्यप्रतिभा का अभूतपूर्व निदर्शन होता है । इसके साथ ही आचार्यश्री विशुद्ध सागरजी महाराज के सान्निध्य में शताधिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भी आयोजित हुए हैं एवं आपके आशीर्वाद से अनेक तीर्थों का विकास और भव्य जिनालयों का निर्माण हुआ है । आचार्यश्री ने श्रमण दीक्षा धारण करने के उपरांत अद्यावधि देश के उत्तर दक्षिण आदि सभी भागों में लगभग एक लाख किलोमीटर का पदविहार कर लिया है । एक समर्थ संघनायक के रूप में आपकी अद्वितीय विशेषताओं और प्रभावक व्यक्तित्व के कारण ही आपके गुरु गणाचार्य श्री विराग सागर जी महाराज ने महाराष्ट्र के जालना में सन् 2024 में अपनी समाधि के पूर्व अपने सभी शिष्यों के मध्य आपको ही अपना पट्टाचार्य पद प्रदान करने की घोषणा की थी ।
इस प्रकार एक युगश्रेष्ठ जैनाचार्य के रूप में जन-जन के मध्य अप्रतिम प्रसिद्धि को प्राप्त आचार्य भगवन् श्री विशुद्ध सागर जी महाराज यश प्रसिद्धि की प्राप्ति की लोकेषणा से दूर रहकर एक वीतरागी समत्व साधक के रूप में आचार्य कुन्दकुन्द की तरह आत्मा की पूर्णशुद्धि को प्राप्त करने के लिए मोक्षमार्ग की आध्यात्मिक यात्रा में प्रतिपल अविराम गति से गतिमान हैं ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here