रायपुर {विश्व परिवार } : अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन युवा परिषद, कोल्हापूर के कार्याध्यक्ष श्री अभिषेक अशोक पाटील ने बताया की गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ अयोध्या (उ. प्र.) में विराजमान हैं | सन् 1934 की शरदपूर्णिमा के उस शुभ दिन जब चन्द्रमा की शुभ्र छटा सम्पूर्ण धरा को अपने आवेश में समेटे थे, तब उ.प्र. के बाराबंकी जनपद के ग्राम टिकेतनगर में बाबू छोटेलाल जी जैन के घर एक कन्या का जन्म हुआ। कौन जानता था कि माँ मोहिनी की यह कन्या एक दिन जगत माता बनकर अपने ज्ञान के प्रकाश से सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करेगी।
पद्मनंदिपंचविंशतिका के स्वाध्याय के कारण बचपन से ही विकसित वैराग्य के बीज 1952 में शरदपूर्णिमा के दिन ही प्रस्फुटित हुए जब बाराबंकी में आपने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सप्तम प्रतिमा (ब्रह्मचर्य) के व्रत अंगीकार किये। 1953 में चैत्र कृष्णा एकम् को श्री महावीर जी में आपने आचार्य श्री देशभूषण जी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर ‘वीरमती’ नाम प्राप्त किया। व्रत एवं नियमों का कठोरता से पालन करते हुए आप अपनी संज्ञा ‘वीरमती’ को तो सार्थक कर ही रही थीं, किन्तु आपको मात्र क्षुल्लिका के व्रतों से संतोष कहाँ। 19 वर्ष की यौवनावस्था में क्षुल्लिका के व्रतों का कठोरता से पालन करने के साथ ही आप निरन्तर वैराग्य के भावों को विकसित करती रहीं एवं अनन्तर इस युग के महान आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञा से उनके ही पट्टशिष्य आचार्यश्री वीरसागर जी से वैशाख कृष्णा द्वितीया को 1956 ईसवी) माधोराजपुरा की पवित्र भूमि में आर्यिका के व्रतों को अंगीकार कर ‘ज्ञानमती’ की सार्थक संज्ञा प्राप्त की। धन्य हैं वे भविष्य दृष्टा आचार्य श्री वीरसागर जी जिन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से इनकी प्रतिभा का आकलन कर इन्हें ‘‘ज्ञानमती’’ नाम दिया।
आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी के साक्षात तीन बार दर्शन करने वाली सर्वोच्च जैन साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जैनशासन के वर्तमान व्योम पर छिटके नक्षत्रों में दैदीप्यमान सूर्य की भाँति अपनी प्रकाश-रश्मियों को प्रकीर्णित कर रहीं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जिन्होने आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी के तीन बार दर्शन किए हैं-१. नीरा (महाराष्ट्र ) में सन् १९५४ में, २. बारामती (महा.) में सन् १९५५ में,३. कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र (महा.) में सन् १९५५ में सल्लेखना के समय। सन् १९५५ में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी ने कुंथलगिरि में देशभूषण-कुलभूषण जी की प्रतिमा के समक्ष १२ वर्ष की सल्लेखना ली थी।
ज्ञानमती माताजी उस समय क्षुल्लिका अवस्था में वीरमती माताजी थी,कुंथलगिरि में एक माह आचार्यश्री के श्रीचरणों में रहीं | क्षुल्लिकावस्था में आचार्य श्री की प्रत्यक्ष सल्लेखना तो देखी ही है, साथ ही उनके श्रीमुख से अनेक अनुभव वाक्य भी प्राप्त किए हैं। ज्ञानमती माताजी (क्षुल्लिका विरमती) ने आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी से आर्यिका दीक्षा की याचना की थी | किन्तु आचार्य श्री ने कहा था कि मैंने सल्लेखना ले ली है और अब दीक्षा देने का त्याग कर दिया है। तुम मेरे शिष्य वीरसागर से आर्यिका दीक्षा लेना। अत: चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के आदेशानुसार उन्होंने 1956 की वैशाख कृष्ण दूज को माधोराजपुरा (जयपुर-राजस्थान) में आचार्य श्री शांतिसागर जी के प्रथम शिष्य पट्टाचार्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा (महिलाओं के लिए दीक्षा की सर्वोच्च अवस्था) ली और आर्यिका ज्ञानमती बन गईं।एवं नाम के अनुसार सारे विश्व में एक विराट साहित्य कि शृंखला का सृजन किया, जो कि न भूतो न भविष्यती |