पारसोला(विश्व परिवार)। पंचम पट्टाधीश वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज पारसोला में विराजित है ।दिगंबर जैन समाज द्वारा बच्चों बड़ों के लिए धार्मिक शिक्षण शिविर आयोजित किया गया है जिसमें आचार्य श्री सहित संघ के मुनियों, माताजियों द्वारा धर्म उपदेश से शिक्षा दी जा रहा है। संस्कार शिविर में शिविरार्थियों को संबोधित करते हुए आचार्य श्री वर्धमान सागर जी ने बताया कि जैन धर्म में तीर्थंकर देवों ,गणधरो केवली भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म देशना को आचायो ने शास्त्रों में लिपिबद्ध किया है ।चार अनुयोग प्रथमनुयोग ,करुणानुयोग , द्रव्यानुयोग चरणानुयोग में शास्त्रों की रचना की गई है । जयंतीलाल कोठारी ,ऋषभ पचौरी,वीरेंद्र सेठ ने बताया कि आचार्य श्री ने प्रवचन में कहा कि वर्तमान में प्रथमानुयोग में महापुरुषों के जीवन चरित्र का वर्णन है। महान पुण्य से मनुष्य जन्म मिला है जन्म से मृत्यु तक अनेक भवों में अनेक पर्याय में आपने संसार परिभ्रमण किया है । मनुष्य पर्याय में धर्म और संयम प्राप्त होता है ,भगवान की देशना ही धर्म है । धार्मिक शिविर के माध्यम से यह समझने का प्रयास करें कि धार्मिक शिक्षा जीवन संस्कार के लिये कितनी जरूरी है ।लौकिक शिक्षा से जीवन का निर्वाह होता है वर्तमान में लौकिक शिक्षा धन प्राप्त करने का माध्यम है। आध्यात्मिक शिक्षा का जीवन में महत्व समझना जरूरी है बच्चों से लेकर बड़ों को भी धार्मिक शिक्षण जरूरी है धार्मिक शिक्षा से जीवन की धारा बदल जाती है शास्त्रों में महापुरुषों के जीवन चरित्र अंकित हैं राजेश पंचोलिया अनुसार आचार्य श्री ने आगे बताया कि शास्त्रों से यह ज्ञान मिलता है कि जीवन का निर्माण कैसे करना चाहिए बालकपन से शिक्षा और संस्कार से जीवन बनता है इसलिए लौकिक शिक्षा के साथ आध्यात्मिक शिक्षा भी जरूरी है धर्म से हमें अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त होता है। शास्त्रों में भगवान की आराधना करने की विधि बतलाई गई है भगवान के दर्शन, अभिषेक, पूजन ,स्वाध्याय पूर्ण विधि पूर्वक करना चाहिए ।भगवान की पूजन अभिषेक के बिना अधूरी है। पाषाण की धातु की प्रतिमा में गुणों का आरोपण करने से वह प्रतिमा भगवान बनकर पूजनीय हो जाती है। जैन शास्त्रों के स्वाध्याय ,अध्ययन, मनन चिंतन करने में ही जीवन की सार्थकता है। अंग्रेजी वर्ष जनवरी से प्रारंभ होते हैं किंतु हिंदू धर्म अनुसार चैत्र माह से वर्ष विक्रम संवत् प्रारंभ होता है, जैन धर्म अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण से भी वीर निर्वाण वर्ष प्रारंभ होता है। धर्म से जीवन को संस्कारित कर जीवन का निर्माण करने से ही जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त होगा इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है।