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ज्ञानरूपी दीपक में संयम रूपी चिमनी आवश्यक है:- मुनिश्री शीतल सागर जी महाराज

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जबलपुर(विश्व परिवार)। संगम कॉलोनी में विराजमान ज्ञान ज्योति पुंज निर्यापक मुनि श्री प्रसाद सागर जी के संगस्थ मुनि श्री शीतल सागर जी ने कल ज्ञान की महिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा ज्ञानरूपी दीपक में संयमरूपी चिमनी आवश्यक है अन्यथा वह राग-द्वेष की हवा से बुझ जायेगा , एवं प्रयोग (अनुभव) के अभाव में बढ़ा हुआ मात्र शाब्दिक ज्ञान अनुपयोगी, व्यर्थ ही साबित होता है।ज्ञान की शोभा विनय, नम्रता से है वस्तुत: विनय में ही ज्ञान सफलीभूत होता है। तथा बुद्धि बढ़ने के साथ-साथ विशुद्धि भी बढ़नी चाहिए। बुद्धि के बढ़ने पर भी विशुद्धि का नहीं होना आश्चर्य की बात है।
बुद्धि कच्चे माल की तरह है और विवेक पक्के माल की तरह। बुद्धि की परिपक्व दशा का नाम ही विवेक है। और ज्ञान विकास ज्ञान साधना के लिए पाठशाला संचालित की जाती है जिससे बच्चो को संस्कारों के साथ ज्ञान की प्राप्ति प्राचीन भारतीय परंपरा के साथ हो सके और इसी पद्धति को बढ़ावा देने के लिए शिक्षक दिवस पर मुनि संघ के सानिध्य में पाठशाला अधिवेशन रखा गया है जिसमें जबलपुर ही नही बाहर से भी कई पाठशाला के शिक्षक शिक्षिका आयेंगे ।
मुनि श्री प्रसाद सागर जी ने उपस्थित जन समूह को संबोधन देते हुए कहा की सम्यक् दर्शन के आठ अंग होते हैं यह प्राय: सभी को ज्ञात है किन्तु यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि सम्यकज्ञान के भी आठ अंग होते हैं। यदि इन अंगों का पालन किये बिना कोई स्वाध्याय, तत्व चर्चा या उपदेश करता है तो अब आप ही समझिये कि उसके पास कौन-सा ज्ञान है।
क्षमताओं के विकास के लिये शिक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है किन्तु जिन्हें स्वयमेव ज्ञान प्राप्त हो जाता है उन्हें शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती।
जिसका ज्ञान पञ्चेन्द्रिय विषयों से प्रभावित है वह व्यक्ति मन के माध्यम से विकास के स्थान पर अपनी आत्मा को विनाश की ओर ले जा रहा है।ज्ञान के होने पर अनुभूति हो ही जायेगी यह कोई नियम नहीं है क्योंकि अनुभूति का संबंध चारित्र से है। हाँ….. जिस समय अनुभूति होगी उस समय ज्ञान अवश्य ही रहेगा।

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