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तन का श्रृंगार मत करो, चेतन को निर्मल करो: दिगम्बराचार्य गुरुवर श्री विशुद्ध सागर जी महाराज

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कोल्हापूर(विश्व परिवार)। अंतिम तिर्थेश वर्धमान स्वामी के शासन में हम सभी विराजते हैं | तीर्थंकर भगवान की पीयूष देशना जिनेंद्रवाणी जगतकल्याणी है | यह सर्वज्ञशासन, नमोस्तुशासन जयवन्त हो | जयवन्त हो वितरागी श्रमणसंस्कृती |
प. पू. चर्या शिरोमणी दिगम्बराचार्य गुरुवर श्री विशुद्ध सागर जी महाराज जी ने धर्म सभा में मंगल प्रवचन करते हुए कहा कि व्यक्ति जीवन में सबसे अधिक जड़-शरीर की देख-भाल करता है, इस देह को सुंदर और पुष्ट करने के लिए कुछ भी अनर्थ करने को तैयार हो जाता है। जबकि शरीर की राख की होने वाली है। जिसकी राख होने वाली है, उसके लिए हम अपने जीवन को मिटा रहे हैं।
आचार्य विशुद्ध सागर महाराज जी ने कहा, शाश्वत सुख पाने को एक-एक क्षण मूल्यवान है। मनुष्य भव अत्यंत दुर्लभ है। तन का श्रृंगार मत करो, चेतन को निर्मल करो। चित्त की निर्मलता भविष्य में पवित्र भव को प्रदान करती है।
कर्म सिद्धांत बहुत विचित्र व बलवान है। कर्म किसी को नहीं छोड़ता है। कर्म के वेग में बड़े- बड़े सम्राट भी परास्त हो जाते हैं। उन्होंने कहा, जीवन अमूल्य है, इसे पहचानो।
जीवन के पथ पर सँभल-संभल कर आगे बढ़ो। एक जीवन वह है जो पुल रहा है, एक जीवन वह है जो तिरस्कार को प्राप्त हो रहा है। एक पाषाण वह है जिससे परमात्मा की प्रतिमा बन रही है और एक पाषाण वह है जिसे सीढ़ियों पर लगाया जा रहा है।अहो ! एक फूल अर्थी पर फेंका जाता है, एक फूल किसी सुन्दरी के गले में शोभायमान हो रहा है और एक फूल प्रभु के चरणों में चढ़ाया गया है। समझो, जहाँ कभी पूरा था वहाँ भी महल बन जाते हैं। जो कुछ हो रहा है, उसे तटस्थ भाव से स्वीकारो। राग-द्वेष-मोह की मदिरा का त्याग करो।
दशलक्षण धर्म तो आत्मा का धर्म है | जिसके माध्यम से आत्मा पवित्र हो, उसका नाम पर्व है | दोषों का भाव हो, गुणों की प्राप्ती हो, इसका नाम पर्व है |
उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य की आराधना करना ही दशलक्षण अथवा पर्युषण पर्व है।
आत्मतत्त्व की शुद्धी, स्वात्मानुभूती, स्वात्मोपलब्धी का कोई साधन है तो वह धर्म है दशलक्षण धर्म का प्रथम दिन उत्तम क्षमा धर्म है |
1. उत्तम क्षमा धर्म –
बहिरंग शत्रुओं को जन्म देने वाले भी अंतरंग शत्रू ही हैं | अंतरंग में कषायिक भाव उत्पन्न न हों तो अन्य किसी के प्रती क्रोधादी प्रकट न करें | दुसरे के प्रती जो अशुभ -भाव उत्पन्न होता है, उन्हीं भावनाओं से उत्प्रेरित भिन्न – जन शत्रूता का व्यवहार करने लगते हैं | सर्वप्रथम स्व के अंदर कालुष्य – भावना का आभाव करना होगा, क्योंकी कालुष्यता की अनुत्पत्ती क्षमा है, परकृत कष्ट देने पर भी जो पर को कष्ट देने के भाव ही न लाए वही उत्तम क्षमा धर्म है | क्रोध का अभाव जहाँ होगा, वही क्षमा- धर्म होगा |

 

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