Home महाराष्ट्र सुखी जीवन जीना है तो चिंतन करें: आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज

सुखी जीवन जीना है तो चिंतन करें: आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज

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कोल्हापूर(विश्व परिवार)। आचार्य श्री 108 विशुद्धसागर जी महाराज ने धर्म- सभा में सम्बोधन करते हुए अपने अमृत वचनों से कहा कि- जिसे शीघ्र चिता पर जलना है वह चिंता करे और जिसे सुखी जीवन जीना है वह चिंतन करे। चिंतन आत्मोन्नति का प्रबल साधन है। विचारशील मानव सर्वत्र सफलता को प्राप्त करता है। चिंता चिता के समान दुखदायी होती है।
चिंता करने से शारीरिक बल, प्रज्ञा, बुद्धि, ज्ञान नष्ट होता है। चिंतन से सर्व समस्याएं सुलझ जाती है और विकास की राहें प्रशस्त होती हैं। जैसी चिंतन की धारा होती है, वैसा ही जीवन का निर्माण होता है। विचारों पर ही आचार निर्मित होता है। संयोग-वियोगों में व्यक्ति चिंतित होता है। अच्छे व्यक्तिओं के वियोग होने पर, सहयोगियों के वियोग पर और शत्रुओं के संयोग पर हम चिंता के गहरे गड्ढे में गिरते चले जाते हैं। चिंता करने वाले की खुशी विलीन हो जाती है, मुख काला होने लगता है, आंखें धंसने लगती हैं, शरीर सूखने लगता है, भोजन अरुचिकर लगता है, विपरीत सोचते-सोचते प्राण निकल जाते हैं। सर्व रोगों की मूल जड़ चिंता है।
विचारों से ही मानव की पहचान होती है। विचारों के अनुसार ही व्यक्तित्व एवं कृतित्व निर्मित होता है। विचार हमारे कुल, परंपराओं और संस्कृति के घोतक होते हैं। व्यक्ति विचारों से ही उठता है, विचारों से ही गिरता है। विचारों से ही विकास होता है, विचारों से ही ह्रास होता है।विचारशील मानव का भोजन शुद्ध-शाकाहार ही होता है। शुद्ध भोजन ही शुद्ध विचारों को जन्म देता है। वर्तमान के पवित्र विचार भविष्य में सुख-शांति आनंद के आधार पर बनते हैं। जैसा बीज होता है, वैसा ही फल लगता है। जैसी मति होगी, वैसी गति होगी। सद्गति चाहिए तो सद् विचार करो।
भावों के अनुसार कर्म का बंध होता है। जैसा बंध होता है ठीक उसी तरह कर्मों का उदय होता है। सत्ता के उदय से सुख तथा असत्ता के उदय से दुख होता है। जीवन में सुख व दुख दो पहलू होते हैं, यानी कभी सुख तो कभी दुख। अशुभ उदय के काल में जीवन रूद्रन, दुखित व कष्ट प्राप्त करता है।
दिगंबराचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज श्री ने कहा कि जीव स्वयं ही पाप करता है तथा स्वयं ही कष्टों को भोगता है। आंखों की पलक उठाने में भी शक्ति लगानी पड़ती है और इसका एहसास वृद्धावस्था में होता है। कभी पहलवानी करने वाले भी शक्तिक्षीण होने पर एक कदम उठा भी नहीं पाते हैं। जीव स्वयं बंधता है तथा स्वयं मुक्त भी होता है। जब जीव के भाव, भाषा व कार्य बुरे होते हैं तो समझा जा सकता है कि उसके साथ बुरा होना है।
प्रज्ञावंत मनुष्य को संभलकर जीवंत जीवन जीना चाहिए। वहीं कहा कि जीवन में आत्म जागृति आवश्यक है। पलभर की भी असावधानी नहीं करनी चाहिए क्योंकि क्षण भर का भी प्रमाद व आलस जिदगी भर का भी दुख दे सकता है। जिस तरह एक बीज वृक्ष के रूप में विस्तृत हो जाता है। ठीक उसी तरह एक अशुभ भाव व पाप जीवन को पतित कर देता है। सुखद जीवन के लिए उत्साह, उमंग के साथ जीवंत जीवन जीना चाहिए। निराश होकर जीने वाला व्यक्ति कभी सफल इंसान नहीं हो सकता।

 

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