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श्री दिगंबर जैन बड़ा मंदिर (लघु तीर्थ) में 16 वे तीर्थंकर शांतिनाथ भगवान के जन्म,तप एवं मोक्ष कल्याणक महोत्सव दिवस पर निर्वाण लड्डू चढ़ाया गया

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(विश्व परिवार)। श्री आदिनाथ दिगंबर जैन बड़ा मंदिर (लघु तीर्थ) में आज ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, २५५१ दिनांक 26 मई सोमवार को जगत शांति प्रदाता 16 वे तीर्थंकर श्री शांतिनाथ भगवान का जन्म, तप एवं मोक्ष कल्याणक महामहोत्सव भक्तिमय वातावरण में हर्षौल्लास के साथ मनाया गया। पूर्व उपाध्यक्ष श्रेयश जैन बालू एवं मीडिया प्रभारी प्रणीत जैन ने बताया कि इस अवसर पर सुबह 8.30 बजे बड़ा मंदिर की श्री पार्श्वनाथ बेदी के समक्ष श्री शांतिनाथ भगवान को पाण्डुक शिला में विराजमान कर, प्रासुक जल मंत्रोंचार से शुद्ध कर रजत कलशों से जल अभिषेक उपस्थित सभी धर्म प्रेमी बंधुओ द्वारा किया गया। तत्पश्चात संपूर्ण विश्व में सुख समृद्धि एवं शांति बने रहे इस भावना के साथ सुख शांति समृद्धि प्रदाता चमत्कारिक शांतिधारा की गई। आज की शांति धारा करने का सौभाग्य श्रेयश जैन बालू को प्राप्त हुआ। आज की शांति धारा का शुद्ध उच्चारण धीरज जैन जैन गोधा द्वारा किया गया। इसके बाद नित्य नियम से अष्ट द्रव्यों से निर्मित अर्घ्य से सर्वप्रथम श्री देव शास्त्र गुरु पूजन शांतिनाथ भगवान की पूजा के साथ निर्वाण कांड पढ़ कर मंत्रोच्चार के साथ मोक्ष कल्याणक महोत्सव पर 16 वे तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ का निर्वाण लड्डू चढ़ाया गया। भगवान शांतिनाथ के जयकारों से पूरा जिनालय गुंजायमान हो गया। अंत में विसर्जन पाठ पढ़ कर पूजन विसर्जन किया गया।
16 वे तीर्थंकर श्री शांति नाथ भगवान का संक्षिप्त जीवन परिचय
जैन धर्म के 16वें तीर्थंकर शांतिनाथ जी का जन्म हस्तीनापुर नगर में हुआ था। उनके जन्म से ही चारों ओर शांति का राज कायम हो गया था। अकूत संपदा के मालिक रहे राजा शांतिनाथ ने सैकड़ों वर्षों तक पूरी पृथ्वी पर न्यायपूर्वक शासन किया। तभी एक दिन वे दर्पण में अपना मुख देख रहे थे तभी उनकी किशोरावस्था का एक और मुख दर्पण में दिखाई पड़ने लगा, मानो वह उन्हें कुछ संकेत कर रहा था। उस संकेत देख वे समझ गए कि वे पहले किशोर थे फिर युवा हुए और अब प्रौढ़। इसी प्रकार सारा जीवन बीत जाएगा। लेकिन उन्हें इस जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा पाना है। यही उनके जीवन का उद्देश्य भी है।…और उसी पल उन्होंने अपने पुत्र नारायण का राज्याभिषेक किया और स्वयं दीक्षा लेकर दिगंबर मुनि का वेश धारण कर लिया। मुनि बनने के बाद लगातार सोलह वर्षों तक विभिन्न वनों में रहकर घोर तप करने के पश्चात अंतत: पौष शुक्ल दशमी को उन्हें केवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई और वे तीर्थंकर कहलाएं। तदंतर उन्होंने घूम-घूमकर लोक-कल्याण किया, उपदेश दिए। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सम्मेदशिखरजी पर भगवान शांतिनाथ को निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्म के पुराणों के अनुसार उनकी आयु एक लाख वर्ष कही गई हैं।

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