पारसोला(विश्व परिवार)। आचार्य शांति सागर जी का जीवन्त जीवन समयसार रहा मुनि धर्म का पालन कैसे किया जाता है उसका एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया समयसार ग्रंथ को उन्होंने अपने जीवन में अपनाया ,उन्होंने जिनवाणी और अपनी आत्मा का संरक्षण किया चौरंगी रंग की चार गतियां की भौतिक दुनिया से सात तत्व रूपी दुनिया में रहने से आत्मा का भला रत्नत्रय प्राप्ति के पुरुषार्थ करने से होता है। जीवन में परिवर्तन जरूरी है जीव तत्व से लेकर मोक्ष तत्व के बीच में सभी तत्वों को समझने की जरूरत है तभी जीव सम्यक दर्शन के माध्यम से मोक्ष लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । ब्रह्मचारी गज्जू भैया एवं राजेश पंचोलियाअनुसार आचार्य श्री ने प्रवचन में आगे बताया कि संसार परिभ्रमण का मूल कारण मिथ्यात्व है सात तत्वों को जीवन में अपनाने का पुरुषार्थ कर मनुष्य जीवन को सार्थक करना चाहिए। जिस प्रकार भूखे व्यक्ति को भोजन प्राप्त होने से, मयूर को वर्षा होने से, गरीब को धन प्राप्त होने से सुख मिलता है उसी प्रकार सात तत्वों के श्रद्धान से सम्यक दर्शन होता है जो की शाश्वत सुख होता है। संकल्प, शक्ति ,उत्साह और भक्ति से मनोरथ पूर्ण होता है इससे संत समागम का अवसर मिलता है आचार्य श्री ने घोषणा की कि 12 अक्टूबर को प्रथमाचार्य श्री शांति सागर जी महाराज जी जिस सिंहासन पर बैठते थे ,जो मयूर पीछी उन्होंने धारण की ,जो कमंडल का उपयोग करते थे, जिस माला से वह मंत्र जाप कर करते थे और जिस ग्रंथ का वह स्वाध्याय करते थे वह डायरी और ताम्रपत्र पर जो जिनवाणी उनकी प्रेरणा से अंकित हुई उसका पारसोला में भव्य प्रवेश संघ सानिध्य में होगा। आचार्य श्री के प्रवचन के पूर्व मुनि श्री पुण्य सागर जी महाराज ने आचार्य श्री शांति सागर जी का गुणानुवाद कर अनेक संस्मरण बताएं।ऋषभ पचौरी,जयंतीलाल कोठारी, प्रवीण जैन अनुसार इसके पूर्व प्रात काल मुनि श्री पुण्य सागर जी महाराज का आचार्य शताब्दी महोत्सव कार्यक्रम हेतु भव्य मंगल पदार्पण हुआ। प्रातः दशा नरसिंहपुरा समाज द्वारा संचालित श्री आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर पारसोला में प्राचीन प्रतिमाओं के पुनः संस्कार वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज द्वारा किए गए।11 अक्टूबर को श्री आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर पारसोला में आचार्य श्री शांति सागर स्तूप उनके चरण की स्थापना आचार्य श्री संघ के सानिध्य में श्री आदिनाथ जिनालय में कराई गई। प्राचीन प्रतिमाओं के संस्कार और चरण स्थापना प्रतिष्ठा आचार्य श्री वर्धमान सागर जी संघ सानिध्य में प्रतिष्ठाचार्य पंडित हंसमुख शास्त्री के निर्देशन में कराई गई।