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राजनैतिक रूप से एकजुट मुसलमान भी है जातियों-कुरीतियों में बंटा – संजय सक्सेना

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(विश्व परिवार)। यह बात समझ से परे है कि गैर भाजपा दलों के नेताओं को हिन्दू समाज में पिछड़े और दलित जाति के लोगों की ही चिंता क्यों सताती है। उनका ध्यान उन और दलित मुसलमानों की तरफ क्यों नहीं जाता है जो उच्च श्रेणी के मुसलमानों के कारण अपने अधिकारों से वंचित हैं। मुसलमानों में इन दलित और पिछड़े लोगों की पहचान पसमांदा समाज के रूप में है। दरअसल,भारतीय मुसलमान मुख्यतः तीन जाति समूहों में बंटा हुआ है इन्हेंअशराफ़,अजलाफ़, और अरज़ाल कहा जाता है. ये जातियों के समूह हैं, जिसके अंदर अलग-अलग जातियां शामिल हैं. हिंदुओं में जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण होते हैं, वैसे ही अशराफ़, अजलाफ़ और अरज़ाल को देखा जाता है. अशराफ़ में सैयद, शेख़, पठान, मिर्ज़ा, मुग़ल जैसी उच्च जातियां शामिल हैं. मुस्लिम समाज की इन जातियों की तुलना हिंदुओं की उच्च जातियों से की जाती है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शामिल हैं. दूसरा वर्ग है अजलाफ़. इसमें कथित बीच की जातियां शामिल हैं. इनकी एक बड़ी संख्या है, जिनमें ख़ास तौर पर अंसारी, मंसूरी, राइन, क़ुरैशी जैसी कई जातियां शामिल हैं. क़ुरैशी मीट का व्यापार करने वाले और अंसारी मुख्य रूप से कपड़ा बुनाई के पेशे से जुड़े होते हैं. हिंदुओं में उनकी तुलना यादव, कोइरी, कुर्मी जैसी जातियों से की जा सकती है. तीसरा वर्ग है अरज़ाल. इसमें हलालख़ोर, हवारी, रज़्ज़ाक जैसी जातियां शामिल हैं. हिंदुओं में मैला ढोने का काम करने वाले लोग मुस्लिम समाज में हलालख़ोर और कपड़ा धोने का काम करने वाले धोबी कहलाते हैं. अरज़ाल में वो लोग हैं, जिनका पेशा हिंदुओं में अनुसूचित जाति के लोगों का होता था. इन मुसलमान जातियों का पिछड़ापन आज भी हिंदुओं की समरूप जातियों जैसा ही है।
राज्यसभा के पूर्व सांसद और पसमांदा मुस्लिम आंदोलन के नेता अली अनवर अंसारी कहते हैं कि मुसलमानों में भी जाति प्रथा हिंदुओं की तरह ही काम करती है. विवाह और पेशे के अलावा मुसलमानों में अलग-अलग जातियों के रीति रिवाज भी अलग-अलग हैं. मुसलमानों में भी लोग अपनी ही जाति देखकर शादी करना पसंद करते हैं. मुस्लिम इलाक़ों में भी जाति के आधार पर कॉलोनियां बनी हुई दिखाई देती हैं. कुछ मुसलमान जातियों की कॉलोनी एक तरफ़ बनी हुई है, तो कुछ मुसलमान जातियों की दूसरी तरफ़. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संभल में तुर्क, लोधी मुसलमान रहते हैं. उनके बीच काफ़ी तनाव रहता है. उनके अपने-अपने इलाक़े हैं. राजनीति में भी ये देखा जाता है.अली अनवर कहते हैं कि जीने से लेकर मरने तक मुसलमान जातियों में बंटा हुआ है. शादी तो छोड़िए, रोटी-बेटी का रिश्ता भी नहीं है एक दो अपवाद को छोड़कर.जाति के आधार पर कई मस्जिदें बनाई गई है. गांव-गांव में जातियों के हिसाब से क़ब्रिस्तान बनाए गए हैं. हलालख़ोर, हवारी, रज्जाक जैसी मुस्लिम जातियों को सैयद, शेख़, पठान जातियों के क़ब्रिस्तान में दफ़नाने की जगह नहीं दी जाती. उनके अनुसार, कई बार तो पुलिस को बुलाना पड़ता है.मुसलमानों में कम से कम 15 ऐसी जातियां हैं, जिन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा मिलना चाहिए. मुसलमानों में जो पिछड़ी जातियां हैं, उन्हें ओबीसी कैटेगरी में रखा गया है, लेकिन उससे हलालख़ोर जैसी जातियों के लोगों को कोई फ़ायदा नहीं मिलता, जबकि उनका पिछड़ापन हिंदू दलितों जैसा है।
इस संबंध में प्रो. तनवीर फ़ज़ल बताते हैं कि धर्म परिवर्तन के समय लोग अपने साथ अपनी अपनी जातियां भी लेकर आए. इस्लाम धर्म अपनाने के बाद भी उन्होंने जाति को नहीं छोड़ा. उत्तर प्रदेश के जिन राजपूतों ने मुस्लिम धर्म अपनाया, वे अभी भी अपने नाम के साथ चौहान लिखते हैं. ख़ुद को राजपूत मानते हैं. यह भी माना जाता है कि जो तुर्क, मुग़ल और अफ़ग़ान भारत में आए. उन्होंने अपने लोगों को शासन व्यवस्था में ऊंचा स्थान दिया और यहां के लोगों को कमतर निगाहों से देखा. प्रोफ़ेसर फ़ज़ल के अनुसार हो सकता है कि वहां से भी इसकी शुरुआत हुई हो।
खैर, यह सब बातें इस लिये बताई जा रही थीं क्योंकि हाल ही में प्रधापमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विपक्ष पर हमला बोलते हुए कहा था कि यह लोग मुसलमानों में दलित और पिछड़ों की बात क्यों नहीं करते हैं। मोदी ने कांग्रेस द्वारा जातिगत जनगणना करवाने की मांग की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि कांग्रेस द्वारा केवल हिंदू समाज की जातीय जनगणना की बात करने का उद्देश्य हिंदुओं की एक जाति को दूसरी जाति के खिलाफ भड़काना भर है, जबकि मुसलमानों की विभिन्न जातियों की बात पर कांग्रेस मुंह बंद कर लेती है।वैसे तो मोदी के निशाने पर कांग्रेस और गांधी परिवार था,लेकिन कमोबेश यही स्थिति उन तमाम दलों की भी है जो तुष्टिकरण या मुस्लिम वोट बैंक की सियासत करते हैं।इसमें समाजवादी पार्टी,बसपा,लालू यादव की पार्टी,ममता बनर्जी,केजरीवाल सभी दलों के नेता शामिल हैं।
यहां यह याद दिला देना भी जरूरी है कि भले ही मोदी राज में कांग्रेस जातीय जनगणना की बात कर रही हो कांग्रेस का पूर्व नेतृत्व जिसमें नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक की सरकारें शामिल थीं ने हमेशा जातिवाद का विरोध किया था।इतना ही नहीं कांग्रेस कग नेतृत्व वाली संप्रग सरकार जिसके मुखिया मनमोहन सिंह और सुपर पीएम सोनिया गांधी थी ने वादा करने के बावजूद 2011 में हुई जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी से संबंधित जातिगत गणना के आंकड़े को सार्वजनिक नहीं किया था। यह विडंबना ही है कि आज वही कांग्रेस और गांधी परिवार जातीय जनगणना के लिए सबसे अधिक व्याकुल है। कांग्रेस का विभिन्न मुस्लिम जातियों के बारे में चर्चा न करना और उनके बीच सामाजिक न्याय की उपेक्षा कर पसमांदा और अशराफ मुस्लिमों के विभेद को नकारना उसकी सामाजिक न्याय की नीति पर प्रश्नचिह्न लगाता है। प्रधानमंत्री मोदी तो लगातार मुस्लिमों की जातियों और उनके सामाजिक न्याय के संघर्ष की तरफ सबका ध्यान आकर्षित करते रहे हैं, लेकिन तथाकथित सेक्युलर-लिबरल, कांग्रेसी और कम्युनिस्ट मुस्लिमों की जातियों पर चर्चा करना उचित नहीं समझते और न ही मुस्लिम समाज के सामाजिक न्याय का संघर्ष उनके लिए कोई मायने रखता है। उनके इस रवैये से पसमांदा समाज में क्षोभ की स्थिति व्याप्त होना स्वाभाविक है,लेकिन यह और बात है कि इस समाज के पास कोई सियासी विकल्प ही नहीं मौजूद है और बीजेपी पर यह समाज चाह कर भी भरोसा नहीं कर पाता है।क्योंकि बीजेपी के खिलाफ इनको दिलों में काफी जहर घोल दिया गया है।
मुसलमानों में व्याप्त जातिवाद और इससे एक बड़े तबके को उसका हक नहीं मिल पाने की स्थिति में ओबीसी से संबंधित जातिगत आंकड़े एकत्र करना नितांत आवश्यक हो जाता है, ताकि शिक्षा, रोजगार एवं राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों में इससे संबंधित सभी पात्र समुदायों को आरक्षण और अन्य कल्याणकारी योजनाओं का समुचित लाभ मिल सके। 1955 में आई काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट ने मुसलमानों और अन्य पंथों के बीच कुछ जातियों/समुदायों को भी पिछड़ा घोषित किया था। मंडल आयोग ने भी सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया था कि जातियां या जातियों जैसी संरचना केवल हिंदू समाज तक ही सीमित नहीं, अपितु यह गैर हिंदू समूहों-मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों के बीच भी पाई जाती है। इसी तरह से इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ केस में नौ जजों की बेंच ने पिछड़ेपन के निर्धारक के रूप में आर्थिक मानदंड को खारिज कर दिया था। न्यायालय ने जाति की अवधारणा को यह कहते हुए बरकरार रखा कि भारत में जाति एक सामाजिक वर्ग हो सकती है और प्रायः होती भी है। गैर-हिंदुओं यानी मुसलमानों और दूसरे धर्मों में पिछड़े वर्गों के सवाल पर न्यायालय ने कहा था कि उनकी पहचान उनके पारंपरिक व्यवसायों के आधार पर की जानी चाहिए। इस प्रकार पिछड़ा वर्ग एक ऐसी श्रेणी है, जो बिना किसी धार्मिक भेदभाव के विशेष रूप से उन जाति समूहों को संदर्भित करती है, जो सामाजिक पदानुक्रम में मध्य स्थान पर स्थापित हैं और आर्थिक, शैक्षिक तथा अन्य मानव विकास संकेतकों के मामले में पीछे रह गए हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुस्लिम समाज की जातिगत गणना की बात करना न्यायसंगत है, लेकिन तथाकथित मुस्लिम हितैषी और सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियों की तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं दिखी है। कुल मिलाकर जब तक संपूर्ण जातिगत जनगणना पर आम सहमति नहीं बन जाती है, तब तक मुस्लिम जातियों की जनगणना की जरूरत पर बल देना ही चाहिए, ताकि मुस्लिम समाज में भी सामाजिक न्याय स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हो सके। आज मुस्लिम समाज की जातीय जनगणना एक अनिवार्य अंग है, जिस पर केंद्र और राज्य सरकारों को शीघ्र अति शीघ्र ध्यान देना चाहिए। यह मानना और प्रचारित करना निरा झूठ है कि मुसलमानों में जातियां नहीं हैं और उनमें कोई भेद नहीं है। यहां यह बात ध्यान रखना होगी कि मुस्लिम समाज की मौजूदा स्थिति न तो मुस्लिम समाज के हित में है और न राष्ट्रहित में। जब तक देश में बसने वाले सभी समुदायों को सभी क्षेत्रों में उचित भागीदारी द्वारा राष्ट्र की मुख्यधारा से न जोड़ा जाए, तब तक कोई भी देश विकसित और संपन्न नहीं हो सकता। न सिर्फ मुसलमानों, बल्कि आम जनमानस, केंद्र एवं राज्य सरकारों के साथ मीडिया को भी यह समझने की जरूरत है कि मुस्लिम समाज भी ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा, दलित और आदिवासी वर्ग में बंटा है। पूरे मुस्लिम समाज को एक समरूप समाज मानकर बनती आ रही नीतियों पर पुनर्विचार करते हुए मुसलमानों की जातिगत संरचना को ध्यान में रखते हुए नीति निर्धारण पर बल देना चाहिए। इसके लिये सबसे पहले मुसलमानों की जातीय जनगणना कराया जाना ही एक मात्र विकल्प है।

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