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इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण में सरकारी नीतियों और प्रशासन की भूमिका

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नई दिल्ली(विश्व परिवार) | भारत की इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री एक आश्चर्यजनक बदलाव से गुजर रही है, जिसके प्रभाव को हम एक दशक बाद पीछे मुड़कर देखेंगे तो पूरी तरह से समझ पाएंगे। अगर इसकी समीक्षा की जाए तो कभी नहीं देखे गए इंफ्रास्ट्रक्चर कैपेक्स साइकल की शुरुआत हो चुकी है और यह आने वाले कई दशकों के लिए भारत के विकास की नींव रखेगा। विश्व स्तर पर बहुत कम क्षेत्र सरकार की नीतियों से जुड़े हुए हैं, जितना इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर जुड़ा है। इसलिए भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर के बेहतर भविष्य के लिए नीतिगत बदलाव जरुरी हैं।

दरअसल, साल 1991 में भारत के आर्थिक लिब्रलाइजेशन की शुरुआत हुई थी। उस समय के स्वर्गीय प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा घोषित सुधारों को सामूहिक रूप से एलपीजी सुधार के रूप में जाना जाने लगा। ये लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के लिए खड़े थे। बात अगर इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में भारत के सबसे बड़े ग्रुप अदाणी की करें. तो 90 दशक की यह कंपनी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सौर ऊर्जा कंपनी बनी साथ ही भारत की सबसे बड़ी एयरपोर्ट संचालक कंपनी भी है, जिसकी पैसेंजर ट्रैफ़िक में 25% और एयर कार्गो में 40% हिस्सेदारी है। साथ ही भारत की सबसे बड़ी पोर्ट और लॉजिस्टिक्स कंपनी है, जिसकी राष्ट्रीय बाजार में हिस्सेदारी 30% है। यह भारत की सबसे बड़ी इंटिग्रेटेड एनर्जी कंपनी है, जो उत्पादन, ट्रांसमिशन, डिस्ट्रीब्यूशन, एलएनजी और एलपीजी टर्मिनल्स और शहरी गैस और पाइप गैस वितरण में फैली हुई है। इतना ही नहीं, यह भारत की दूसरी सबसे बड़ी सीमेंट निर्माता कंपनी भी है। इसके अलावा भी हम मेटल, पेट्रोकेमिकल्स, एयरोस्पेस और डिफेंस, सुपर ऐप और इंडस्ट्रियल क्लाउड समेत कई दूसरे नए क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं।

विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार लिब्रलाइजेशन से पहले के तीन दशकों में भारतीय जीडीपी 7 गुना बढ़ी, उदारीकरण के बाद के तीन दशकों में हमारी जीडीपी 14 गुना तक बढ़ गई इसलिए लिब्रलाइजेशन की ताकत का सत्यापन इन आंकड़ों से बेहतर कोई नहीं कर सकता। इन सुधारों ने भारत के आर्थिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ को चिन्हित किया और लाइसेंस राज को खत्म कर दिया, जिसने सरकार को लगभग हर उस एप्रूवल में शामिल देखा, जिसकी व्यवसायों को आवश्यकता थी। 1991 के मार्केट-फ्रेंडली रिफॉर्म्स की शुरुआत करके, भारत ने अपने प्राइवेट सेक्टर की क्षमता को अनलॉक कर दिया और इसके बाद के विस्तार के लिए प्लेटफॉर्म तैयार किया।

लिब्रलाइजेशन के बाद के दौर ने इसे फिर साबित कर दिया। पहले के ज़माने की धीमी गति से चलने वाली ज्यादातर कंपनियां बाजार पर आधारित इस नई व्यवस्था में खुद को ढालने में नाकाम रहीं। या तो वो बिलकुल खत्म हो गईं या फिर अपनी पूरी क्षमता को हासिल नहीं कर पाईं। वहीं दूसरी तरफ, आज की तारीख में भारत की कंपनियां, जो लिब्रलाइजेशन के बाद बनी हैं, वो काफी तेजी से आगे बढ़ रही हैं। इंडस्ट्री लीडर्स का मानना है कि आर्थिक वृद्धि जारी रखने के लिए ढांचागत सुधारों को जारी रखना होगा। इसके साथ ही इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास भी करना होगा, जिससे भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सके। लेकिन इसके लिए जरुरत है सरकार को बजट में ढांचागत सुधारों, स्ट्रैटेजिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, सेंट्रल सेक्टोरल इंसेंटिव और रेशनल टैक्स सिस्टम को प्राथमिकता देने की। इसके जरिए भारत मौजूदा चुनौतियों का सामना कर सकता है और मजबूती से आगे बढ़ने के साथ लंबे समय में एक प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था बना रह सकता है।

विकास के लिए सरकार का सबसे अधिक फोकस सड़क, हाईवे, रेल, दूसरी लॉजिस्टिक व्यवस्था, बिजली, एयरपोर्ट, बंदरगाह जैसी इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं के विस्तार पर रहा है और यह आगे भी जारी रहेगा। वित्त वर्ष 2014-15 से लेकर चालू वित्त वर्ष 2023-24 के अपने कार्यकाल के दौरान मोदी सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं के विकास पर 43.9 लाख करोड़ रुपए खर्च किए हैं, जबकि यूपीए के शासन काल वित्त वर्ष 2004-05 से लेकर वित्त वर्ष 2013-14 के दौरान इंफ्रास्ट्रक्चर पर 12.39 लाख करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। भारत सरकार पिछले कई वर्षों के दौरान देश के बुनियादी ढांचे के विकास पर होने वाले खर्च में काफी इजाफा करती रही है। साल-दर साल बजट एलोकेशन के जरिए भी इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ाया गया है। हाईवे, एक्सप्रेसवे, एयरपोर्ट और रेलवे जैसी बुनियादी सुविधाओं के विस्तार के लिए होने वाले इस कैपिटल एक्सपेंडीचर से इन सेक्टर्स से सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी कंपनियों को भी फायदा हुआ है। इतना ही नहीं, ऐसी कंपनियों के शेयर्स में निवेश करने वाले इंफ्रास्ट्रक्चर म्यूचुअल फंड्स ने भी पिछले 5 साल में अपने निवेशकों को जमकर मुनाफा दिया है।

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