इंदौर (विश्व परिवार)। चर्याशिरोमणि आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज के आशीर्वाद एवं श्रुतसंवेगी मुनिश्री आदित्यसागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में दिनांक 21 मार्च से 23 मार्च 2025 तक सत्यार्थबोध ग्रन्थ की प्राकृत टीका सच्चत्थबोहो पर राष्ट्रीय विद्वत्संगोष्ठी का आयोजन किया गया। सत्यार्थबोध कृति का प्रणयन पूज्य आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज ने हिन्दी में किया है उसके ऊपर प्राकृत भाषा में मुनिश्री आदित्यसागरजी महाराज ने टीका की है। इस टीका के सम्पूर्ण प्रणयन में पूज्य मुनिश्री सहजसागरजी महाराज एवं मुनिश्री अप्रमितसागरजी महाराज का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सच्चत्थबोहो ग्रन्थ में 31 अध्याय हैं। कुल मिलाकर यह सत्यार्थ-बोध ग्रन्थ प्राकृत अनुष्टुप् श्लोकों की संख्या की अपेक्षा 4000 श्लोक प्रमाण है। सूत्रों की अपेक्षा 1071 सूत्र प्रमाण है। अध्याय की अपेक्षा 31 अध्याय प्रमाण है और प्रति अध्याय की अपेक्षा 62 अध्याय प्रमाण है। सम्पूर्ण ग्रन्थ नीतिवाक्यों एवं सूक्ति-सुभाषितों से परिपूर्ण है। यह ग्रन्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाला है।
इस संगोष्ठी के निदेशक डॉ. श्रेयांस कुमार जैन बडौत अध्यक्ष अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद् एवं संयोजक पंडितश्री विनोद जैन रजवांस वरिष्ठ उपाध्यक्ष अ.भा.दि.शास्त्रि परिषद् रहे। संगोष्ठी में देश भर से अनेक विद्वान् पधारे, जिनमें से डॉ. नरेन्द्र जैन टीकमगढ, डॉ धर्मेन्द्र जैन जयपुर, ब्र. विनोज जैन छतरपुर, डॉ. अनुपम जैन इंदौर, डॉ. आशीष जैन आचार्य शाहगढ़, डॉ. सुनील जैन संचय ललितपुर, डॉ.आशीष जैन शास्त्री बम्हौरी, डॉ. सुमत जैन उदयपुर, डॉ. बाहुबली जैन इंदौर, डॉ.पंकज जैन इंदौर, विद्वत्श्री सुरेश जैन मारौरा आदि। मुनिश्री आदित्यसागरजी महाराज ने आलेखों की समीक्षा करते हुए कहा – ज्ञान जीवन का आवश्यक अंग है परंतु चरित्र के बिना कुछ भी नहीं है। चारित्र प्राप्त करना ही सत्यार्थबोध है। यह नीतिपरक ग्रन्थ है। नीति से तात्पर्य है जो दु:खों की इति कर दें वह नीति है। या जो दु:खों को आने ही न दे वह नीति है। जो व्यक्ति कीमत न करता हो उसको वक्त मत दो। जिसको आपके वक्त की कीमत हो उसे ही अपना वक्त दो। ध्यान रखना! व्यक्ति बुरा नहीं है, वक्त बुरा है, टाल दो। शिक्षा के तीन भेद किए जा सकते हैं – लौकिक, पारलौकिक और अलौकिक। जो संसार के जीवन-यापन के लिए आवश्यक है, वह लौकिक है। जो धर्म से जोड़ती है वह पारलौकिक है। और जो अध्यात्म रस का पान कराती है वह अलौकिक है। मुनिश्री ने व्यसन के विषय में कहा – व्यसन अर्थात् पुनरावृत्ति करने की प्रक्रिया। बार-बार किया जाए वह व्यसन हैं। बच्चों को संभाल लिया तो संस्कृति संभल जायेगी। व्यसन से मुक्ति मिल जायेगी। विद्वान् ने प्रश्न किया – महाराजश्री! ग्रन्थों का यह नियम होता है कि पहले मूल आता है फिर टीका आती है परंतु इस ग्रन्थ में पहले टीका है फिर मूल है। तब मुनिश्री कहते हैं – मैंने भी आचार्यश्री से प्रश्न किया था, तब उन्होंने कहा था – हिन्दी सत्यार्थबोध की मूल है परंतु प्राकृत पूज्य है, इसलिए प्राकृत ऊपर रखना और हिन्दी नीचे रखना। मुनिश्री आगे कहते हैं – परिश्रम करना बड़ी बात नहीं है, सही दिशा में परिश्रम करना अलग बात है। इसलिए ग्रन्थों का पठन-पाठन धीरे-धीरे और समझ-समझकर करना। दया के अभाव में सर्वगुणों का अभाव है। अन्त में कहते हैं – विद्वानों की संगति मिलना सातिशय पुण्य का उदय है। इसलिए श्रावकगण! आप सभी विद्वानों का सदैव बहुमान करना क्योंकि ये आपके पुण्यवृद्धि के भी कारण हैं।