कोल्हापुर(विश्व परिवार)। जैनशासन के वर्तमान व्योम पर छिटके नक्षत्रों में दैदीप्यमान सूर्य की भाँति अपनी प्रकाश-रश्मियों को प्रकीर्णित कर रहीं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जी जिन्होने आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी के तीन बार दर्शन किए हैं-१. नीरा (महाराष्ट्र ) में सन् १९५४ में, २. बारामती (महा.) में सन् १९५५ में,३. कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र (महा.) में सन् १९५५ में सल्लेखना के समय।
सन् १९५५ में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी ने कुंथलगिरि में देशभूषण-कुलभूषण जी की प्रतिमा के समक्ष १२ वर्ष की सल्लेखना ली थी।
ज्ञानमती माताजी उस समय क्षुल्लिका अवस्था में वीरमती माताजी थी,कुंथलगिरि में एक माह आचार्यश्री के श्रीचरणों में रहीं | क्षुल्लिकावस्था में आचार्य श्री की प्रत्यक्ष सल्लेखना तो देखी ही है, साथ ही उनके श्रीमुख से अनेक अनुभव वाक्य भी प्राप्त किए हैं।
ज्ञानमती माताजी (क्षुल्लिका विरमती) ने आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी से आर्यिका दीक्षा की याचना की थी | किन्तु आचार्य श्री ने कहा था कि मैंने सल्लेखना ले ली है और अब दीक्षा देने का त्याग कर दिया है। तुम मेरे शिष्य वीरसागर से आर्यिका दीक्षा लेना।
अत: चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के आदेशानुसार उन्होंने 1956 की वैशाख कृष्ण दूज को माधोराजपुरा (जयपुर-राजस्थान) में आचार्य श्री शांतिसागर जी के प्रथम शिष्य पट्टाचार्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा (महिलाओं के लिए दीक्षा की सर्वोच्च अवस्था) ली और आर्यिका ज्ञानमती बन गईं।एवं नाम के अनुसार सारे विश्व में एक विराट साहित्य कि शृंखला का सृजन किया, जो कि न भूतो न भविष्यती |
दिगम्बर साधु संत परम्परा में वर्तमान युग में अनेक तपस्वी, ज्ञानी ध्यानी सन्त हुए। उनमें आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज एक ऐसे प्रमुख सन्त श्रेष्ठ तपस्वी रत्न हुए हैं, जिनकी अगाध विद्वता, कठोर तपश्चर्या, प्रगाढ़ धर्म श्रद्धा, आदर्श चरित्र और अनुपम त्याग ने धर्म की यथार्थ ज्योति प्रज्वलित की।
आपने जो किया व अभूतपूर्व है |
आपके द्वारा लुप्तप्राय, शिथिलाचारग्रस्त मुनि परम्परा का पुनरुद्धार कर उसे जीवन्त किया | यह निर्ग्रंथ श्रमण परम्परा आपकी ही कृपा से अनवरत रूप से आज तक प्रवाहमान है। आज लगभग १६०० साधु विहार कर रहे हैं, यह सब आचार्यश्री का ही उपकार है।
कर्नाटक प्रदेश में बेलगाँव जिले में भोज ग्राम के भीमगौंडा पाटील जी की धर्मपत्नी सत्यवती थीं। माता पिता दोनों भी संस्कारित थे | जब आचार्य श्री शांतिसागर जी गर्भ में आए थे, तो इनकी माँ को बहुत शुभ दोहला उत्पन्न हुआ था | इनकी माँ की तमन्ना हुई थी की मैं 1000 पंखडी वाले 108 कमलो से मैं जिनेन्द्र देव की पूजा करू | ये भावना उत्पन्न हुई थी, फिर कमल पुष्प कोल्हापुर के राजा के सरोवर के यहाँ से लाए गए थे | फिर उन्होंने पूजा की थी |
उसके बाद उनकी माँ ने ठान ली थी की उनके पेट में पल रहा बच्चा जरूर होनहार होगा। सचमुच वह शुभ दोहला ही था की बालक भवितव्यता का द्योतक है। सन् १८७२ में आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन माता सत्यवती ने अपने पीहर येळगुळ में एक पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का नाम ‘सातगौंडा’ रखा गया। ये ही आगे प्रथमाचार्य शांतिसागर जी हुए हैं। ‘आचार्य शांतिसागर जी के माता-पिता भोजग्राम निवासी थे, लेकिन आचार्य शांतिसागर जी का जन्म येळगुळ ग्राम में नाना के घर हुआ।
आजीवन ब्रह्मचर्य-
वैराग्य पथ की और बढ़ते हुए आपने 18 वर्ष की उम्र में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत श्री सिद्ध सागर जी मुनिराज से लिया। साथ ही बिस्तर व जूते चप्पल का त्याग कर दिया।
गरीब अशक्त महिला को कराई यात्रा- आपका ह्र्दय सचमुच विशाल था, जिसका उदाहरण मिलता है, जब आप 32वर्ष की उम्र में शिखर जी की यात्रा कर रहे थे,तब उन्हे, रास्ते मे एक अधिक उम्र की बुढ़िया रो रही थी नजर आई, उसकी पहाड़ पर जाने व वंदना की कामना थी, किंतु शारीरिक रूप से कमजोर थी। गरीब होने से डोली के रुपये भी नही थे। तब आपने बुजर्ग महिला को कंधे पर बिठा कर शिखर जी की वंदना कराई। जो उनकी विशालता को बतलाता हैं। इतना ही नही जब आप राजगृही पर्वत की वंदना ग्रहस्थ अवस्था मे कर रहे थे तब एक बुजर्ग पुरूष को भी उठा कर पहाड़ की वंदना कराई।
एक बार आचार्य श्री ने मिट्टी के कलश पर श्रीफल रखकर पड़गाहन की विधि ली 8 दिन तक विधि नही मिली। अगले दिन बहुत गरीब जिसके पास कलश धातु का नही था। मिट्टी के कलश से पड़गाहन किया। और भाग्यशाली श्रावक के यहाँ विधि मिल गई आहार अच्छे से हो गया।
ग्वालियर में शीत ऋतु में कई दिनों के बाद आहार होना था | विधि यह थी कि गीले कपड़ो में कोई पड़गाहन करे | 2 राउंड हो गए विधि नही मिली | समाज की भीड़ भी बहुत हो गई | सोले वाले श्रावक को किसी ने छू टच कर दिया | सामने से आचार्य श्री आते दिखे तत्काल श्रावक ने पानी का घड़ा उड़ेल कर कपड़े पूरे गीले कर लिए | पुण्योदय से आहार की विधि मिल गई और निरन्तराय आहार हुआ |
में एक जवाहरात के व्यापारी का मन हुआ कि में सोने चांदी के द्रव्य से पड़गाहन करूँगा | उधर संयोग वश आचार्य श्री ने भी यही विधि ली | विधि मिल गई, आहार प्रारम्भ हो गया | तभी उस श्रावक को ध्यान आया कि जवाहरात की थाली तो बाहर ही रखी है | भीतर लाया ही नही | श्रावक का ध्यान बाहर था | आचार्य श्री उसकी मनोदशा समझ रहे थे | इस बीच मंदिर के पुजारी ने वह थाल सुरक्षित भीतर रख दी थी | सच है कि जहाँ आचार्य परमेष्ठी के चरण हो वहाँ अनिष्ट हो नही सकता है | उसके बाद आचार्य श्री ने दोबारा ऐसी विधि नही ली |
ऐसे बहुत संस्मरण है जिन्हें पढ़कर अगाध श्रद्धा से मन दिल झुक जाता है | धन्य धन्य धन्य हो प्रभु।