Home आर्टिकल दवा से परे टीबी का उपचार:डॉ मनीषा वर्मा

दवा से परे टीबी का उपचार:डॉ मनीषा वर्मा

51
0

 (विश्व परिवार)। जिनेवा में हाल ही में संपन्न विश्व स्वास्थ्य सभा में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्‍ल्‍यूएचओ) के भारत को ट्रेकोमा-मुक्त घोषणा करना, केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक महत्‍वपूर्ण उपलब्धि नहीं है। यह सामूहिक राष्ट्रीय इच्छाशक्ति का एक उत्‍कृष्‍ट प्रमाण है। स्वच्छता, सफाई और जागरूकता में दशकों के सक्रिय प्रयासों से प्राप्‍त यह उपलब्धि, इस बात का परिचायक है कि भारत तपेदिक (टीबी) से किस प्रकार निपट रहा है। वास्तव में, ट्रेकोमा पर जीत की गूंज, टीबी-मुक्त भारत की दिशा में राष्ट्र के महत्वाकांक्षी अभियान में दृढ़ता को दर्शाती है।
जिस तरह मौलिक सार्वजनिक स्वास्थ्य सिद्धांतों पर निरंतर ध्यान ने ट्रेकोमा के खिलाफ लड़ाई को रेखांकित किया, उसी तरह टीबी के खिलाफ वर्तमान लड़ाई भी समान रूप से व्यापक और महत्वपूर्ण रूप से गहराई से निहित जनभागीदारी यानी लोगों की भागीदारी के सिद्धांत के साथ लड़ी जा रही है। यह केवल एक नारा नहीं है, बल्कि यह सरकार की रणनीति का आधार है। हाल ही में शुरू किया गया 100- दिवसीय टीबी उन्मूलन अभियान इस संकल्प का उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है। इस अभियान के अंतर्गत 12 करोड़ 97 लाख लोगों की जांच की गई और 7 लाख 19 हजार से अधिक टीबी रोगियों की जानकारी दी गई।
लेकिन जो बात इस प्रयास को अलग बनाती है, वह है टीबी के सामाजिक लक्षणों को खत्म करने की समानांतर प्रतिबद्धता। 13 करोड़ 46 लाख “नि-क्षय शिविर” या सामुदायिक जांच और जागरूकता शिविरों का आयोजन, इस मान्यता के बारे में बहुत कुछ कहता है कि प्रभावी उपचार, दवा से परे कलंक, मिथकों और गलत सूचनाओं के उन्मूलन तक फैला हुआ है।
टीबी उन्मूलन के संदर्भ में जन-भागीदारी जीवंत और बहुआयामी है। यह एक ऐसा तंत्र है जो आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं जैसे सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के अथक समर्पण का समर्थन करता है, जो दूरदराज के गांवों में संपर्क का सबसे मूल्यवान माध्‍यम हैं। वे संभावित मामलों की पहचान करने, उपचार नियमों का पालन सुनिश्चित करने और महत्वपूर्ण पोषण सहायता प्रदान करने वाले गुमनाम नायक हैं। इस नींव पर स्थानीय स्वयं-सहायता समूहों, गैर-सरकारी संगठनों और आस्था-आधारित संगठनों द्वारा संसाधनों को जुटाने से महत्वपूर्ण रोगी सहायता नेटवर्क स्थापित करके समुदाय-नेतृत्व वाले इस प्रयास को और मजबूती मिलती है।
हालांकि, अग्रिम पंक्ति के इन योद्धाओं के मैदान में उतरने से पहले ही, भारत के सशक्‍त मीडिया द्वारा जमीन तैयार की जा रही है। 100 दिवसीय अभियान का आकर्षक नारा, ‘जन-जन का रखे ध्यान, टीबी-मुक्त भारत अभियान’, सिर्फ़ एक आकर्षक मुहावरा नहीं है, यह एक राष्ट्रीय आह्वान है जो असंख्य स्थानीय भाषाओं में टेलीविजन, रेडियो और सार्वजनिक स्थानों पर गूंज रहा है। इस व्यापक जागरूकता सृजन को अटूट राजनीतिक इच्छाशक्ति द्वारा महत्वपूर्ण रूप से बढ़ावा दिया गया है जिसमें माननीय प्रधानमंत्री सहित सरकार के सर्वोच्च स्तर के अधिकारी लगातार भारत की प्रगति का आधार रख रहे हैं। माननीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री के तत्वावधान में एक “संपूर्ण-सरकार” का दृष्टिकोण जिस तरह से मंत्रालयों में सहयोग को बढ़ावा दे रहा है और राज्य स्तर पर सक्रिय प्रयास जारी है, वह एकीकृत राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
टीबी के खिलाफ भारत की लड़ाई की एक और आधारशिला, इसकी पंचायती राज संस्थाओं की व्यापक पहुंच है। 2,50,000 से ज़्यादा पंचायतें टीबी उन्‍मूलन को चर्चा में ला रही हैं और सरपंचों तथा ग्राम प्रधानों को सार्वजनिक स्वास्थ्य के अग्रणी के रूप में शामिल कर रही हैं। टीबी के बारे में अब खुलकर चर्चा की जाती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रामीण स्तर पर इस पर कार्रवाई की जाती है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य सहयोगी के रूप में मीडिया
इस महान प्रयास में मीडिया की भूमिका अपरिहार्य है। सरकारी पहलों, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और समुदाय द्वारा संचालित उपायों की प्रेरक कहानियों पर प्रकाश डालकर, मीडिया जनता का विश्वास बढ़ाता है और देखभाल के लिए आगे आने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह विकेंद्रीकृत, जन-केंद्रित मॉडल निक्षय-मित्र पहल के रूप में अपनी अभिव्यक्ति को उजागर करता है। पोषण और टीबी उपचार परिणामों को जोड़ने वाले भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के साक्ष्य के बारे में व्यापक मीडिया कवरेज ने सामुदायिक कार्रवाई की एक शक्तिशाली लहर को प्रज्वलित किया, जिससे निगम, गैर-सरकारी संगठन, व्यक्ति और यहां तक कि बच्चे भी निक्षय मित्र बनने के लिए आगे आए। हाल ही में 100 दिनों के अभियान के दौरान 1.05 लाख से अधिक निक्षय मित्रों द्वारा टीबी रोगियों और उनके परिवारों को 3.06 लाख से अधिक खाद्य टोकरियां वितरित की गईं, जो जमीनी स्तर पर इस दृष्टिकोण के दूरगामी प्रभाव को स्पष्ट रूप से उजागर करती हैं।
संभवत: सबसे शक्तिशाली रूप से, टीबी से उबरने वाले लोगों के विजेता के रूप में सामने आने से यह कहानी बदल गई है। ये व्यक्ति, सफलतापूर्वक अपने स्वयं के ठीक होने की कहानी को आगे बढ़ाते हुए, अब अभिन्न सहयोगी हैं, जो सहानुभूति, मार्गदर्शन और प्रमाण देते हैं कि टीबी पूरी तरह से उपचार-योग्य है। उनका संरचित प्रशिक्षण- जहां वे टीबी को समझते हैं, वे तरीके जिनसे यह रोगी को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करता है तथा सामुदायिक नेटवर्क बनाने की तकनीकें – तथा अनुभवों को सार्वजनिक रूप से साझा करने से उपचार अनुपालन को प्रेरित करता है तथा महत्वपूर्ण सामुदायिक सहानुभूति का निर्माण करता है।
जैसे-जैसे देश टीबी-मुक्त भारत की ओर अग्रसर हो रहा है, इन प्रमुख उत्प्रेरकों और जन-भागीदारी की भावना के बीच निरंतर तालमेल सर्वोपरि होगा। सूचना देने, प्रेरित करने और लोगों को संगठित करने की उनकी संयुक्त शक्ति निस्संदेह भारत की सबसे बड़ी संपत्ति है। प्रौद्योगिकी का रणनीतिक लाभ उठाकर, नवीन संचार रणनीतियों को बढ़ावा देकर और सामुदायिक भागीदारी को मजबूत करके, भारत केवल एक बीमारी को खत्म करने का प्रयास नहीं कर रहा है, वह एक स्वस्थ, अधिक सक्रिय समाज का भी निर्माण कर रहा है जहां हर नागरिक जागरूक है, हर रोगी को सहायता दी जाती है और जहां टीबी वास्तव में अतीत की बात बन जाती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here