(विश्व परिवार)। वो चमक वो दमक वो मुस्कान वो महक, साधना संयम साहित्य का संगम, समाधिस्थ दिगंबर जैनाचार्य श्री विद्यासागर महाराज का वह रूप गुण है जो प्रथम दृष्टि में ही दर्शनार्थी के ह्रदय तल में उतर जाता था। दर्शनार्थी मानों सम्मोहित सा हो जाता था। कोटि नयन उनकी एक दृष्टि देख आल्हादित हो जाते थे। शरद् पूर्णिमा की रात्रि में धरती पर उतरी चंद्रमा सी शीतल देह साधना के ताप से तपकर सूरज सी हो गई। सांसारिक अवलंबनों से पूर्णतया परे ग्रीष्म,शीत,वर्षा के वेग को दिगंबर देह से सहन किया। दिगंबर तन के मन में ज्ञान का सागर लहराता था। देह के प्रति जितने निर्मोही थे उतना ही आत्मा से अनुराग था, वीतरागी आत्मानुरागी आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के दर्शन से जो अनुभूति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को होती थी वही अनुभूति डाकूओं को भी होती थी जो वात्सल्य अरबों के संपत्ति के स्वामी को मिलता था वही वात्सल्य प्रतिदिन परिश्रम कर आजीविका चलाने वाला श्रमिक भी पाता था,समता के सागर थे संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज।
अपने छप्पन वर्षीय साधना काल में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने अपनी इंद्रियों को मानों अपने वश में कर लिया था। उनकी साधना, व्यक्तित्व पर पचास से अधिक शोध किये जा चुके हैं। शांत रस में रचित उनका महाकाव्य मूकमाटी एक अनोखी रचना है। महाकाव्य के केंद्र में पददलित माटी है,जो कुंभ बन शीर्ष पर विराजमान होती है।
अथक,अनियत,अनवरत,पदविहारी थे—आचार्य श्री विद्यासागर
पग,पग पथ पर बढ़ना, बढ़ते ही रहना, मौसम अनूकूल हो या प्रतिकूल, मार्ग में नदी हो या नाला,पर्वत हो या घाटी, पथ कंकड़ों से पूर्ण हो कंकटाकीर्ण हो या माटी की पगडंडी,नगर नगर, डगर डगर लक्ष्य की दिशा में चलते जाना, मीलों लंबी यात्रा,थमना नहीं, थकना नहीं, रुकना नहीं, बाधाएं जिन्हें रोक पाती नहीं, जाना कहां अन्य को ज्ञात नहीं। पैर के तलुवों में छाले हों या फफोले,तलुवों में कंकड़ चुभे हों बहते रक्त को रोकने के लिये रुकना नहीं,पीड़ा से मुक्ति का कोई उपाय करना नहीं। वर्तमान काल में चतुर्थ कालीन मुनि चर्या का आभास कराने वाले पदयात्री हैं संयम साधना शिरोमणि सुप्रसिद्ध श्रमणाचार्य श्री विद्यासागर महाराज।
साधु की साधना की स्तुति करते हुए उपासक कहते हैं कि करते तप शैल नदी तट पर तरु तल वर्षा की झड़ियों में समता रस पान किया करते सुख दुख दोनों की घड़ियों में।
जैसा मैनें देखा,….. संस्मरण
संस्मरण जुलाई 2000 का है, आचार्य श्री विद्यासागर महाराज संघ सहित सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक में विराजमान थे। स्मरणीय हो कि अमरकंटक की पावन भूमि पर आचार्य श्री का प्रथम प्रवास 1994 में 15 जनवरी को शीत काल में हुआ था मुझे स्मरण है वह दिन गुरुवार था।अपरान्ह में आचार्य श्री अमरकंटक की ओर पग पग बढ़ रहे थे,कि कभी बादल ढक लेते ,कभी बादलों के बीच प्रकट हो जाते।ठंड चरम पर थी, गर्म वस्त्र और अग्नि की आंच भी ठंड से बचाने में समर्थ नहीं हो पा रही थी।दिगंबर काया को बादल दल बार बार स्पर्श कर ठंड के प्रभाव को परखने का प्रयत्न कर रहा था, अंततः अपनी पराजय को स्वीकार कर मानो कह रहा था कि मेरी देह को कपकपाने की क्षमता साधना देह के सामने दीन हीन है।मेरे जीवन का भी प्रथम अवसर था ,आचार्य श्री के समीप पहुंच कर नमोस्तु कर रहा था। मेरी पत्रकारिता वृत्ति ने पूछा कि गुरु और प्रभु में कौन श्रेष्ठ है,आचार्य श्री ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया,तब मुझे प्रश्न की सारहीनता का आभास हुआ, किंचित उदास भी।
आचार्य श्री ने शाम ढलने के पूर्व अमरकंटक में प्रथम संक्षिप्त प्रवचन में बताया कि प्रभु की श्रेष्ठता का परिचय गुरु के माध्यम से मिलता है। दर्पण से परिचित कराने के कारण संसार में प्रथम श्रेष्ठ है,मगर लक्ष्य प्रभु की श्रेष्ठता को पाना है। गुरु और प्रभु दोनों श्रेष्ठ हैं। मेरी जिज्ञासा का समाधान ने मुझे ऐसा प्रभावित किया कि समय बीतता गया समर्पण बढ़ता गया। आचार्य श्री का वात्सल्य अनवरत प्राप्त होता है।
उल्लेख कर रहा था जुलाई 2000 के संस्मरण का,तद्नुसार इस वर्ष ग्रीष्म ऋतु में भीषण सूखा से राजस्थान में प्यास से व्याकुल प्राणी अकाल मर रहे थे।करुणा से ओत प्रोत आचार्य श्री के ह्रदय में इन मूक प्राणियों की प्राण रक्षा के प्रयास करनै की भाव जागृत हुए। तद्नुरुप राजस्थान के अजमेर से रेल परिवहन के द्वारा लगभग एक हजार गोवंश को लेकर मालगाड़ी अमरकंटक के समीपस्थ रेल स्टेशन पेण्ड्रारोड लाई गई। जीवन से जूझ रही गायों की गाड़ी 6 जुलाई 2000 को पेण्ड्रारोड पहुंचना था, इन प्रयासों से पुलकित आचार्य श्री 5 जुलाई2000 को पेण्ड्रारोड(गौरेला) पहुंच गए। सुयोग वश 6 जुलाई 2000 को आचार्य श्री की दीक्षा का तैतीसवां दिवस था। इस दिन स्टेशन प्रांगण में आचार्य श्री ने अहिंसा, जीवदया पर प्रवचन देते हुए बताया कि गाय के बछड़ा के प्रति स्नेह भाव को ही वात्सल्य कहते हैं।
6 जुलाई 2000 की तिथि अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है क्योंकि सदैव पग यात्रा करने वाला पदयात्रियों का मुनि संघ रेल स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर उस ट्रेन के लिए उपस्थित था,जिसमें 1008 गायें जीवन रक्षा के लिए ला रही थी। आचार्य श्री का संघ न तो पहले कभी स्टेशन के प्लेटफार्म पर गया होगा न हि भविष्य में इसकी संभावना है। यह तिथि ,काल,दृश्य अद्भुत अभूतपूर्व था। संध्या लगभग 5 बजे पेण्ड्रारोड के प्लेटफॉर्म पर पहुची मालगाड़ी से उतरती गायों का दृश्य करुणा भाव से भरा था। गौरेला के मार्गों पर गायों के रेला ने नगर का नाम सार्थक कर दिया।
इन गायों के उपचार और पालन के प्रबंध 8 कि मी दूर पेण्ड्रा के निकट लटकोनी गांव में किया गया था। इस हेतू आचार्य श्री संघ सहित गौरेला से गमन कर पेण्ड्रा पहुंचे। यहीं पर आचार्य श्री के पैर में दाने उभर गए, हरपीज के संक्रमण से तीव्र वेदना, जलन के कारण चलना दूभर हो गया।आहार के लिए पग धरना कठिन हो गया। इस बाधा व्याधि से भारत के जैन समाज में चिंता व्याप्त हो गई । आचार्य श्री के अस्वस्थ होने जानकारी मिलते ही समाज रत्न श्री अशोक पाटनी जयपुर के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य को साथ लेकर चार्टर्ड प्लेन से आचार्य श्री के पास पहूंचे,वैद जी ने बताया कि इस संक्रमण का कोई उपचार नहीं है।आचार्य श्री के स्वास्थ्य के लिए समाज में चिंता व्याप्त थी, आचार्य श्री निश्चिंत श्रमण साधना में मगन थे। काया में होकर काया से पृथक रहने वाले संत शिरोमणि को बाधाएं कब डिगा पायीं?आचार्य श्री की तपश्चर्या के सम्मुख सागर ने रस्ता छोड़ा पर्वत ने शीष झुकाया।
पावस योग चातुर्मास स्थापना की अंतिम तिथि समीप थी, अमरकंटक पहुंचना है,साधन रहित साधना के साधक के पैर हरपीज से ग्रस्त था। संघ, श्रावक सभी चिंतित थे और आचार्य श्री शांत चित्त। अचानक आचार्य श्री ने पिच्छि कमंडल उठाया और गमन कर दिया, सहसा किसी को विश्वास नहीं हो पा रहा था।सभी संयम साधना की दृढ़ता के सामने नत मस्तक थे। अमरकंटक की दूरी 50 किमी और लगभग 1500 फुट पर्वत की उंचाई थी। सबको आश्चर्य में डालते हुए आचार्य श्री ने 12 किमी की पदयात्रा की ,ग्राम रुपनडांड में रात्रि विश्राम किया।चहुंओर एक विस्मय युक्त शांति व्याप्त थी, आहार के लिए एक कदम चलना दूभर था ,अमरकंटक के पर्वत पर चढ़ने की यात्रा पर आचार्य श्री चल रहे थे।दूसरे दिन प्रातः विहार कर पीपरखूंटी गांव में आहार चर्या संपन्न हुई। यहाँ से पहाड़ की चढ़ाई आरंभ हो रही थी ,साथ ही घने मेघों से घनघोर बरसात भी आरंभ हो गई।अब मेघ परीक्षा दे रहे थे या पदयात्रियों की परीक्षा ले रहे थे, क्या गमन में बाधक बनने की सामर्थ्य मेघों में थी?
संघ संग विहार में चल रहे गौरेला श्रावकों,युवाओं का उत्साह चरम पर था,मुनि संघ को तिरपाल की छाया में पद विहार कराया जा रहा था,इस प्रबंध से मानो मेघों ने भी पराजय स्वीकार कर ली थी। पग पग चलते हुए हम केवची के समीप पहुंच रहे थे, हमारी इच्छा थी कि संघ यही रात्रि विश्राम करे किन्तु आचार्य श्री ने आगे 6 किमी दूर वन्य ग्राम आमाडोब चलने का संकेत किया। सघन वन मार्ग में चढ़ते हुए बीच बीच मेघों से वर्षा अब मनोहारी दृश्य बना रही थी। बाधा ही अब उत्साह का संचार कर रही थी।आचार्य श्री के साथ चलते चलते यह पूछने पर कि घनघोर वर्षा, प्रतिकूलताओं का अंबार,हरपीज से ग्रस्त पैर, कैसे आप पग पग पर्वत पर चढ़ रहे है, साथ में अजय भैया भी थे, अजय भैया वर्तमान में संघस्थ मुनि पूज्य श्री निस्वार्थ सागर महाराज हैं। तब आचार्य श्री ने जो उत्तर दिया वह श्रमण साधक विहार का सार है।आचार्य श्री ने कहा कि पैरों में कहां दम था इरादों ने चढ़ाया है पहाड़।
यह सुनते ही हमारी जिज्ञासा की गुत्थी सुलझ गई, इस तप के सामने हरपीज की व्याधि बाधा नहीं बन सकती। आचार्य श्री पग पग धर धरा पर गमन करते हैं, पदयात्री हैं मगर इरादों से चलते हैं।
आमाडोब गांव में रात्रि विश्राम कर संघ प्रातः पर्वत पर चढ़ कर कबीर चौरा में आहार कर संध्या सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक पहुंच गया। सन् 2000 में आचार्य श्री का संघ सहित अमरकंटक का प्रथम पावस योग चातुर्मास साधना ,श्रद्धा, भक्ति और आनंद के साथ संपन्न हुआ। आचार्य श्री के वात्सल्य,आशीर्वाद से प्राप्त सामर्थ्य से 1994 से आरंभ लेखन यात्रा अविरल हो रही है, अमरकंटक में आचार्य श्री के श्री मुख से निर्झरित देशना को लेखबध्द संप्रेषण कर सका। भारत की विभिन्न जैन जैनेतर पत्र पत्रिकाओं ने श्रम साध्य लेखों को प्रकाशित कर सार्थकता प्रदान की। 1994 मे आलेखित प्रवचनों का संग्रह “सर्वोदय सार’ प्रकाशित किया जा चुका है।
कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो, वीर मरण हो जिन पद मुझको मिले सामने सन्मति ओ।
छप्पन वर्ष निर्दोष साधना कर वीतरागी महासंत आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने सल्लेखना पूर्वक चंद्रगिरी डोंगरगढ़ में निराकुल निष्पृह निर्मोही भाव और कर्म सहित साधना की श्रेष्ठ परिणति सजग चेतना के साथ समाधि अंगीकार कर काया से मुक्ति प्राप्त की। नवजात देह धरकर आये थे नवजात सी काया से साधना की और नवजात देह से ही आत्मा को पृथक किया।आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने सन्मार्ग पर स्वयं गमन किया और अनेक भव्य जीवों को सन्मार्ग पर चलने की राह दिखाई, मार्ग प्रशस्त किया, पथिक थे और पथ प्रदर्शक भी थे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज। उनके श्री चरणों में कोटि कोटि नमन।