Home जबलपुर पर्यूषण पर्व का पांचवा दिवस उल्लास पूर्वक मनाया गया

पर्यूषण पर्व का पांचवा दिवस उल्लास पूर्वक मनाया गया

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जबलपुर(विश्व परिवार)। आज पर्व का पंचम दिन है। संगम कॉलोनी में निर्यापक मुनि श्री प्रसाद सागर जी ने बताया की कैसे आचार्यों ने धर्म की परिभाषा कई प्रकार से की है। रत्नत्रय को भी धर्म कहा है, कहीं ‘अहिंसा परमो धर्म:’ और कहीं ‘वत्थु सहावी धम्मो’। आज हम सत्य के बारे में कुछ खोज करें। सत्य का मतलब वह जो सन्तोष दिलावे। सत्य के सन्निकट जाने वाला व्यक्ति उस प्रकार अनुभव करे, जिस प्रकार प्यासा व्यक्ति पानी का स्थान जानकर अनुभव करता है। यद्यपि पानी की प्राप्ति हुई नहीं है, पर वह यह अनुभव कर लेता है कि अब प्यास ज्यादा देर तक नहीं रहेगी। सत्य जहाँ है, वहाँ आनन्द के अनुभव का पार नहीं है, सभी चिन्ताएँ आकुलताएँ समाप्त हो जाती हैं। हम सुखेच्छु हैं और चाहते हैं कि दुख का अभाव हो। साधक को सत्य के बारे में मालूम हो जाता है तो वह अपने आपको धन्य समझने लगता है। जहाँ सत् है वहीं सत्य है। जहाँ सत्य है, वहाँ सभी सुख विद्यमान हैं। जहाँ सुख है, वहीं पर सत्य है। रात दिन पल-पल सत्य का अवलोकन करने वाले योगी राज होते हैं। सत्य इस मनुष्य का केन्द्र बनना चाहिए।
पंखे पर किनारे में रखी वस्तु इधर उधर गिर जाएगी और केन्द्र में (बीच में) रखी स्थिर रहेगी। सत्य तीन भागों में विभक्त है उत्पाद, व्यय, श्रीव्य के रूप में ‘उत्पादव्ययश्रीव्ययुक्सत्। तीनों मिलकर सत् है। आप चाहते हैं वर्तमान काल बना रहे, यह तीन काल में नहीं हो सकता। आप के पास दस लाख रुपया है आप उसको स्थिर रखना चाहते हैं,
मुनि श्री १०८ पद्म सागर जी ने प्रवचन में बताया
मनुष्य पर्याय बुलबुले के समान है, योगी उसके साथ-साथ मिटने का भी आनन्द लेते हैं। सत्य उत्पाद में भी है, व्यय में भी है और श्रौव्य में भी है। पर्याय में सुख नहीं है। पर्याय में जो उत्पत्ति हो रही है, उसमें सुख का अनुभव हो रहा है। प्राय: पुण्य का उदय आने पर मुख कमल खिल जाता है, जब असाता का उदय आता है, तब जैसे सूर्य का उदय न होने पर कमल मुरझा जाता है इसी प्रकार मुख मुरझा जाता है। दरिद्र हो जाता है। सत्य को अगर भूल जाओगे और मात्र उत्पाद या व्यय या श्रौव्य को पकड़ लोगे तो दुख का अनुभव करोगे। उषा काल के पीछे अंधेरी शाम भी आएगी। उषा बेला स्थिर नहीं रहेगी। सत्य रूप पर्याय जो उत्पन्न हुई है, वह सत् नहीं है ऐसा समझकर सुख मनायें। क्योंकि उत्पाद हुआ वह अपने समय पर ही व्यय होगा, समय पर ही श्रौव्य होगा, उसकी सुरक्षा उस द्रव्य के पास है। पर्याय को लेकर भटकना, भूलना, हर्ष विषाद का अनुभव करना सत् से दूर होना है। हर्ष-विषाद जहाँ है, वहाँ सत् नहीं है। सत् की पूजा करते हुए भी मांग करना, अपने को पीड़ित या दुखी समझना है। जो ऐसा नहीं कर रहा है, सिर्फ पूजा कर रहा है, निरख रहा है उसे ही सुख का लाभ होगा, वही सत्य का अवलोकन, खोज कर रहा है। दुनियादारी का प्राणी सत्य का अनुभव नहीं कर सकता है। शाम कालीन सत्र में मुनि श्री १०८ शीतल सागर जी महाराज ने धर्म का मर्म बताते हुए सभी को आशीर्वाद दिया।

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