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बीसवीं सदी के प्रथम दिगंबर जैनाचार्य श्री शांतिसागर आचार्य पदारोहण शताब्दी वर्ष एवं संप्रेरिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी

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भगवान आदिनाथ ने युग की आदि में जीवन जीने की कला को सिखाया। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज जिन्होने बीसवीं शताब्दी के अंदर मुनि परम्परा को पुनर्जीवित किया।

कोल्हापूर(विश्व परिवार)। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज – गौरवशाली प्रकाशपुंज आचार्य कुन्दकुन्द,स्वामी समंतभद्र, विद्यानंदी, जिनसेन इत्यादि आचार्यों की जन्मभूमि तथा उपदेश से पवित्र कर्नाटक प्रदेश में आचार्यश्री १०८ शांतिसागर महाराज का जन्म हुआ। बेलगाँव जिले में भोज ग्राम के भीमगौंडा पाटील की धर्मपत्नी सत्यवती थीं। सन् १८७२ में आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन माता सत्यवती ने अपने पीहर येळगुळ में एक पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का नाम ‘सातगौंडा’ रखा गया। ये ही आगे प्रथमाचार्य शांतिसागर जी हुए हैं।
‘आचार्य शांतिसागर जी के माता-पिता भोजग्राम निवासी थे, लेकिन आचार्य शांतिसागर जी का जन्म येळगुळ ग्राम में नाना के घर हुआ।
समडोली ग्राम में ही सर्वप्रथम आचार्यश्री का चतुःसंघ स्थापन हुआ। अब तक केवल अकेले महाराज ही निर्ग्रंथ साधु स्वरूप में विहार करते थे। अब संघ सहित विहार होने लगा। संघ ने उनको समडोली गांव के समीप शालिनी पाटील खेत में ‘आचार्य’ पद घोषित किया। आचार्य महाराज का संघ पर वीतराग शासन बराबर चलता था।
धवला, जयधवला ग्रंथराजों के ताम्रपट्ट कराने का आचार्य श्री शांतिसागर जी का निर्णय-
वि. सं. २००० (ई. सन् १९४४) की घटना है। आचार्यश्री का चौमासा कुंथलगिरि में था। पं. श्री सुमेरचंद जी दिवाकर जी से धर्मचर्चा के समय यह पता चला कि अतिशयक्षेत्र मूड़बिद्री में विद्यमान धवला, जयधवला और महाबंध इन सिद्धान्त ग्रंथों में से महाबंध ग्रंथ की ताड़पत्री प्रति के करीब ५००० सूत्रों का भागांश कीटकों का भक्ष्य बनने से नष्टप्राय हुआ। भगवान महावीर के उपदेशों से साक्षात् संबंधित इस जिनवाणी का केवल उपेक्षा मात्र से हुआ विनाश सुनकर आचार्यश्री को अत्यन्त खेद हुआ। आगम का विनाश यह अपूरणीय क्षति है। इनकी भविष्य के लिए सुरक्षा हो तो कैसी हो? इस विषय में पर्याप्त विचार परामर्श हुआ। अंत में निर्णय यह हुआ कि इन ग्रंथराजों के ताम्रपत्र किये जायें और कुछ प्रतियां मुद्रित भी हों।
प्रातःकाल की शास्त्र सभा में आचार्यश्री का वक्तव्य हुआ। संघपति श्रीमान् सेठ दाडिमचंद जी, श्रीमान् सेठ चंदूलाल जी बारामती, श्रीमान् सेठ रामचन्द जी धनजी दावडा आदि सज्जन उपस्थित थे। संघपति जी का कहना था कि जो भी खर्चा हो वे स्वयं करने के लिए तैयार हैं। फिर भी आचार्यश्री के संकेतानुसार दान संकलित हुआ जो करीब डेढ़ लाख हुआ।
‘‘श्री १०८ चा. च. शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धार संस्था’’ नामक संस्था का जन्म हुआ। ग्रंथों के मूल ताड़पत्री प्रतियों के फोटो लेने का और देवनागरी प्रति से ताम्रपट्ट कराने का निर्णय हुआ |
नियमावली बन गई। कार्य की पूर्ति के लिए ध्रुवनिधि की वृद्धि करने का भी निर्णय हुआ। कार्य की पूर्ति शीघ्र उचितरूप से किस प्रकार हो इस विषय में पत्र द्वारा मुनि श्री समंतभद्र जी से परामर्श किया गया।
गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी-
जैनशासन के वर्तमान व्योम पर छिटके नक्षत्रों में दैदीप्यमान सूर्य की भाँति अपनी प्रकाश-रश्मियों को प्रकीर्णित कर रहीं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जी जिन्होने आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी के तीन बार दर्शन किए हैं-१. नीरा (महाराष्ट्र ) में सन् १९५४ में, २. बारामती (महा.) में सन् १९५५ में,३. कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र (महा.) में सन् १९५५ में सल्लेखना के समय।
मैना (ज्ञानमती माताजी) का जन्म टिकैतनगर (जिला-बाराबंकी, उ.प्र.) के श्री छोटेलाल जी जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी की प्रथम संतान के रूप में 22 अक्टूबर 1934 को शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। माता मोहिनी को उनके माता-पिता द्वारा दहेज में दिए गए प्राचीन जैन ग्रन्थ ‘पद्मनन्दि-पंचविंशतिका’ के नियमित स्वाध्याय से मैना के मन में संसार त्याग की भावना प्रबल हो उठी। वस्तुतः ऐसी भावनाएँ उनमें पूर्व जन्मों से ही गहराई से समाहित थीं।
मैना ने 18 वर्ष की अल्पायु में ही शरद पूर्णिमा के दिन सन् 1952 में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से आजीवन ब्रह्मचर्य, सप्त प्रतिमाएँ (गृहस्थ व्रत) तथा गृहत्याग की शपथ ली। तत्पश्चात सन् 1953 में 20वीं सदी की प्रथम ब्रह्मचारिणी मैना ने ‘क्षुल्लिका वीरमती’ बनने के लिए चैत्र कृष्ण एकम को महावीर जी अतिशय क्षेत्र (राजस्थान) में आचार्य श्री देशभूषण जी से क्षुल्लिका दीक्षा ली।
सन् १९५५ में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी ने कुंथलगिरि में देशभूषण-कुलभूषण जी की प्रतिमा के समक्ष १२ वर्ष की सल्लेखना ली थी।
ज्ञानमती माताजी उस समय क्षुल्लिका अवस्था में वीरमती माताजी थी,कुंथलगिरि में एक माह आचार्यश्री के श्रीचरणों में रहीं | क्षुल्लिकावस्था में आचार्य श्री की प्रत्यक्ष सल्लेखना तो देखी ही है, साथ ही उनके श्रीमुख से अनेक अनुभव वाक्य भी प्राप्त किए हैं।
ज्ञानमती माताजी (क्षुल्लिका विरमती) ने आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी से आर्यिका दीक्षा की याचना की थी | किन्तु आचार्य श्री ने कहा था कि मैंने सल्लेखना ले ली है और अब दीक्षा देने का त्याग कर दिया है। तुम मेरे शिष्य वीरसागर से आर्यिका दीक्षा लेना।
अत: चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के आदेशानुसार उन्होंने 1956 की वैशाख कृष्ण दूज को माधोराजपुरा (जयपुर-राजस्थान) में आचार्य श्री शांतिसागर जी के प्रथम शिष्य पट्टाचार्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा (महिलाओं के लिए दीक्षा की सर्वोच्च अवस्था) ली और आर्यिका ज्ञानमती बन गईं।एवं नाम के अनुसार सारे विश्व में एक विराट साहित्य कि शृंखला का सृजन किया, जो कि न भूतो न भविष्यती |
धन्य हैं वे भविष्य दृष्टा आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज जिन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से इनकी प्रतिभा का आकलन कर इन्हें ‘‘ज्ञानमती’’ नाम दिया। आपकी उत्कृष्ट साधना एवं कठोर तपस्या का ही यह प्रभाव है कि आपके सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक श्रावक/श्राविका आपके सम्मुख स्वयमेव नतमस्तक हो जाता है।
ऐसी ज्ञानमती माताजी जिन्होने आचार्य शांतिसागर जी महाराज जी कि आचार्य परंपरा के सभी आचार्यों के दर्शन किया, जो कि बहुत बडी बात हैं | लगभग आज वर्तमान में 1600 साधु – साध्वीयां विराजमान हैं, उन सबमें सबसे प्राचीन दीक्षित पूज्य ज्ञानमती माताजी हैं | ज्ञानमती माताजी जो कि प्रथम बालब्रह्मचारिणी इन्होंने आर्यिका परम्परा को जीवन्त किया।
आचार्य शांतिसागर महाराज जी की परम्परा आगम परम्परा है। आचार्यश्री आगम के विरुद्ध न कोई बात करते थे, न आगम के विरुद्ध प्रवचन करते थे। ठीक इसी तरह उनकी प्राचीन शिष्या ज्ञानमती माताजी सैद्धान्तिक बाते बताती हैं। आगम के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोलती हैं।
वर्तमान की साधु परंपरा चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर महाराज की देन एवं उपलब्धि है | आज लगभग १६०० साधु विहार कर रहे हैं, यह सब आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज का ही उपकार है |

 

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