कृष्णानगर(विश्व परिवार)। अतीत जन्मों से जीव के द्वारा जो सत्कर्म किया जाता है उससे बंध को प्राप्त आयु के द्वारा यह मनुष्य आयु मनुष्य भव प्राप्त होता है। आज हमें जो कुछ भी सुख अथवा दु:ख प्राप्त हो रहे है वे अपने ही द्वारा पूर्व में किए गए शुभ अथवा अशुभ भावों का ही फल हुआ करते है। व्यक्ति को आज अपने ही भावों को अपने प्रयोजन को जानकर पहिचानकर अपने ही भावों को अपने ही प्रयोजन को समीचीन – स यक बनाना चाहिए। ऐसा महामंगलकारी सदुपयोंग राजधानी दिल्ली कृष्णा नगर में उपस्थित धर्मसभा के बीच भावलिंगी संत आचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी महामुनिराज ने दिया।
आचार्य श्री ने भावों का विश्लेषण करते हुए बताया – शुभ भाव भी दो प्रकार के होते है। 1 सातिशय शुभभाव 2 निरतिशय शुभ भाव जहां सच्चे जिनेन्द्र देव, सच्ची मां जिनवाणी और सच्चे निर्ग्रन्थ बीतरागी गुरू की शरण में जो शुभ भाव किये जाते है वे ही सातिशय शुभ भाव है और जहां धर्म और धर्म और धर्मायतनों से दूर रहकर बाह्य दीन:दुखियों की सेवा आदि के कार्य किय जाते है वे भाव निरतिराय शुभ भाव है। ध्यान रहे अशुभ भाव तो जीव की दु:ख ही पैदा करते है। बन्धुओं निरतिशय शुभ भाव आपकों वैभव तो दिला देंगे। किन्तु अशुभ भावों की तरह आपकी आसक्ति उस वैभव में बढ़ा देंगे। आप अपने वै ाव में ही आसक्ति मोह , राग द्वेष मोह के द्वारा प्राप्त हुए वैभव को नष्ट करके अपनी दुर्गति का ही प्रबंध कर लेंगे।
सातिशय शुभ भावों से ही पुण्य बंध द्वारा जीवन में अनुकूल वैभव ही प्राप्ती हुआ करती है। किन्तु शुभ भाव धर्म के साथ से अत: वह वैभव भी भटकाता नहीं है। अपितु संसार से विरक्ति पूर्वक सद्मार्ग पर बढ़ा देता है। अत: शुभ भाव अवश्य करें। किन्तु सावधानी रखे कि वे शुभ भाव देव शास्त्री की शरण पूर्वक ही हो ताकिं हमारा आगे का भी धर्म मार्ग प्रशस्त्र होता रहे।
09 दिस बर 2024 को परम पूज्य गणाचार्य सूरिगच्छा चार्य गुरूदेव श्री 108 विराग सागर जी महामुनिराज का 42 वां मुनि दीक्षा दिवस राजधानी दिल्ली कृष्णा नगर के श्री महावीर जिनालय में आदर्श शिष्योत्रम आचार्य श्री विमर्श सागर जी महामुनिराज के ससबंध 138 पीछी के सानिध्य में मिलाया गया।